यूँ तो मैं भी हवाओं का हमसफ़र था
लेकिन मौसम के रुख बदलने का डर था
बढ़ चला था बेख़ौफ़ तूफानों के सामने
बेशक पीछे बर्बाद आशियानों का मंज़र था
यकीं किसलिए मैं दोस्त समझ करता रहा
दिलों के दरम्यान फासलों से बाखबर था
शाख से टूटे जो पत्ते लौटकर न आयेंगे
क्यूँकर उन्हीं का इंतज़ार मुझे शामो-सहर था
हर पल हमें आजमाती रही है आंधियां
जमे रहे पांव गहरी बुनियादों का असर था
यूँ ही पर्त दर पर्त जमती गयी वर्ना
यहीं कहीं दफ्न मेरी हसरतों का शहर था
bhawpurn prastuti
ReplyDeleteसार्थक और भावप्रवण रचना।
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