Thursday, November 25, 2010

वह लौट आया

समझ नहीं आ रहा...क्या हो रहा है...क्यों हो रहा है...क्या मैं गलत हूं... या मेरी समझ का धोखा है...क्यों अरिजीत के भाव मेरे लिए अजनबी हो उठे हैं पिछले दस सालों से हम साथ काम कर रहे हैं। कोई भी समस्या हो एक-सा हल, कोई भी काम हो एक-सी सोच के साथ तेजी से निपटाना। समझ-व्यवहार सब जगह एक ही फ्रीक्वेंसी, एक-सी ट्यूनिंग। शायद अपने काम के प्रति यही समर्पण दोस्ती और विश्वास की नींव रख गया था। लेकिन पिछले चार-पांच महीनों से कुछ अलग ही मेरे आसपास घट रहा है, जो मैं कतई स्वीकार नहीं कर पा रही हूं।
वैलेंटाइन डे पर अरिजीत का गुलाब का फूल भेंट करना मुझे बेचैन कर गया था। पता नहीं ये डर था समाज का या मेरी अंतरआत्मा किसी अनहोनी की आशंका से सहम गई थी। आजकल के माहौल को देखूं तो दोस्ती की राह में यह आम घटना थी लेकिन संस्कारों को देखूं तो लगता कि कहीं आगे की राह में फिसलन तो शुरू नहीं हो रही।

जब उसने गुलाब का फूल मेरी ओर बढाया तो मुझे लगा कि कैंपस के हर घर की खिडकी खुल गई है और उन खिडकियों में चिपक गई हैं हजार-हजार आंखें। वही आंखें जो मेरे पति ने मुझे तलाक के अवसर पर भेंट की थीं। यूं तो मैं इन रक्तबीज-सी आंखों का सामना कर सकती हूं, क्योंकि मेरे पास है मेरे परिवार का विश्वास और दोस्ती की ताकत। ईश्वर ने हमेशा मुझे इस नायाब तोहफे से नवाजा है लेकिन अरिजीत...
मैंने गुलाब का वो फूल स्वीकार नहीं किया था, बल्कि आदतन अपने भाषण  से अरिजीत के सभी तर्को को धराशायी कर दिया था। 'फूल तोडना मुझे पसंद नहीं, फिर ये हमारे रिश्ते को मजबूती भला कैसे दे सकता है' नहीं अरिजीत हमारे संबंधों को ऎसे प्रतीकों की जरूरत कब से पडने लगी' सारी बहस में अरिजीत अपनी भावनाओं को निर्दोष्ा साबित करने की कोशिश करता रहा और आखिर में इस बात को यहीं खत्म करने का वादा करके हमने एक-दूसरे से विदा ली थी।
मुझे लगा कि बात आई-गई हो गई, पर शायद नहीं...। पता नहीं इस घटना के बाद मैं असहज हो गई हूं या अरिजीत का व्यवहार वाकई असामान्य हो गया है। मुझे लगता है, हां बार-बार लगता है कि वह मुझे लेकर पजेसिव होता जा रहा है और मैं असहज हो जाती हूं। 'कहीं मैं ही तो गलत नहीं सोच रही...उफ...कैसे दोराहे पर खडी हूं। कहीं संस्कारों के पौधे पर उगा अविश्वास का यह फल हमारी दोस्ती के लिए बारूद तो साबित नहीं होगा। नहीं... यह तो मेरी हार होगी। दोस्ती जैसे पवित्र रिश्ते को मैं खोना नहीं चाहती। लेकिन अगर मेरी आशंका सच हुई तो... तब भी मेरी ही हार होगी समाज की नजरों में परिवार की नजरों में...।'

आज कॉफी हाउस में बैठे अरिजीत ने शादी का प्रस्ताव रखा था।
'...शादी!...' मेरे लिए इस रिश्ते में कोई आकष्ाüण नहीं था। मैं अब तक पिछली कडवाहटों से उबर नहीं पाई। अरिजीत के साथ मेरा संबंध मात्र बौद्घिक स्तर पर था। शादी का मतलब होता है- किसी के लिए संपूर्ण समर्पण। शारीरिक और मानसिक स्तर पर खुद को भुलाकर बस मछली की आंख-सा एक लक्ष्य साथी की खुशी ही एकमात्र लक्ष्य... बट एवरीवन नीड्स हिज ऑन स्पेस... नहीं मेरे लिए यह मुमकिन नहीं...।
'...और अरिजीत शायद तुम भी इस संबंध को निभा न पाओ। आज जिस तरह बौद्घिक स्तर पर समानता के व्यवहार को तुम स्वीकार कर पाते हो इस रिश्ते में नहीं कर पाओगे...न...न... तुम्हारा दोष्ा नहीं, पुरूष्ा स्वभाव से ही ऎसा होता है। प्रेम को प्राप्त करने की इच्छा में वह जितना झुक सकता है, प्रेम प्राप्ति के बाद उसे बनाए रखने के लिए झुकना उसके लिए संभव नहीं।'

'झुकने न झुकने का सवाल कहां है क्या हम मित्रता में समानता के स्तर पर एक-दूसरे के बारे में नहीं सोचते... तो फिर शादी के बाद भी...।' अरिजीत की बात पूरी हो इससे पहले ही मैंने कहा, 'नहीं अरिजीत, मित्रता में अपेक्षाएं सीमित होती हैं। यहां बौद्घिक स्तर पर एक-दूसरे के विकास में सहायता करना सुखद होता है और शादीशुदा जिंदगी में यही सब प्रतियोगिता...जानते हो क्यों...इस प्रतियोगिता में एक-दूसरे के आगे निकल जाने का भय सताता रहता है। शायद यही भय अघिकार भाव को हावी बना देता है।'

'कैसी बातें कर रही हो तुम' 'देखो न! इसी अघिकार भाव के चलते नारी मन के विस्तार को भी हमेशा बांधने की कोशिश की जाती रही है... कभी सुरक्षा के नाम पर बंदी नारकीय वैधव्य जीवन, कभी सती प्रथा और अब बदलाव आया तो पुनर्विवाह के नाम पर सोच को थोपने की कोशिश इसे भी अनिवार्यता बनाने का प्रयास...
ये बिंदी है न, ये पुरूष्ाों से बचने का टीका है...न जाने ऎसी कितनी ही बातें पुरूष्ा की श्रेष्ठता को सिद्घ करना चाहती हैं। क्यों नहीं इस देह सीमा के भीतर समाए अनंत मन को समझा जाता क्यों...' मैं भावुक हो उठी थी।
'पता नहीं तुम क्या कहना चाहती हो' अरिजीत की आंखों में परेशानी के भाव उतर आए थे। 'चाहने का सवाल ही नहीं है मेरे लिए जीवन में प्यार का मतलब सिर्फ इतना है कि जहां तुम्हारी जरूरत है, वहां तुम अपने आपको पूर्ण समर्पित कर दो और जहां तुम्हारी जरूरत नहीं वहां अपने आपको शामिल किए बिना दूर से भावांजलि समर्पित करते रहो। बांधने की कोशिश नहीं, बस निरंतर चलते रहो।' अरिजीत कब उठ कर चले गए, मुझे पता ही नहीं लगा हां लगा तो सिर्फ इतना कि आखिर दोस्त खो ही दिया...।

सोचते-सोचते कब झपकी आ गई, पता ही नहीं चला। उठी तो सिर बहुत भारी था। चाय बनाने लगी तो मोबाइल स्क्रीन झिलमिला रहा था। अरिजीत का फोन! 'हैलो...।
' 'हैलो... कहां थी...सात बार कॉल कर चुका हूं।' 'वो साइलेंट मोड पर था।'
'अच्छा प्रोजेक्ट की डिटेल्स ले आना कल डिस्कस करेंगे।'
'ओह अरिजीत! मैंने तुम्हें खोया नहीं।' मन मयूर हो उठा था। हां वह लौट आया... वह
लौट आया।

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