स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Saturday, August 27, 2011
बन पुनर्नवा ...
Sunday, August 21, 2011
गज़ल (नीरस मुलाकातों का ...)
नीरस मुलाकातों का क्या करें
जंग लगे जज्बातों का क्या करें
जिनके साये में धूप सताए
उन सूखे दरख्तों का क्या करें
जो सुलझ सुलझ कर उलझ रहे हों
उन बदगुमां रिश्तों का क्या करें
ईश्वर भी परेशान हैं जिनसे
सफेदपोश भगतों का क्या करें
दे कर आसमान छीन ली जमीं
स्वप्नमय सौगातों का क्या करें
रगों में कसक सी टीस रही हैं
बेमानी रवायतों का क्या करें
कर्ज के मानिंद सिसके साँसे
बेमियादी किश्तों का क्या करें
मरने के बाद हासिल इन्साफ
कहो इन अदालतों का क्या करें
Monday, August 15, 2011
क्या हम स्वतंत्र हैं
आज हम हर्ष और उल्लास से स्वाधीनता दिवस मना रहे हैं किन्तु कहीं कुछ खटक भी रहा है और वह है एक प्रश्न कि क्या हम स्वाधीन हैं ?
स्वाधीन शब्द बना है स्व और अधीन से मिलकर .स्वाधीन होने के लिए हमें ‘स्व’ के अधीन होना होगा और तब हमें पहचानना होगा ‘स्व’ को .यह आसान काम नहीं है क्योंकि हम तो ‘पर’ को देखने में व्यस्त हैं इतने व्यस्त कि स्व पर उठती अँगुलियों को मुट्ठी में कैद कर ‘पर’ के भ्रष्ट आचरण पर आंसू बहाते रहते हैं .
स्वतंत्र रहने के लिए ‘स्व’ का तंत्र एक अनुशासन की अपेक्षा रखता है .स्वानुशासन के बिना स्व-तंत्र कभी स्थापित हो ही नहीं सकता .अनुशासन के बंधन को स्वीकार कर ही स्वतंत्र होने के उत्सव को मनाया जा सकता है .यहाँ उद्धृत करना चाहती हूँ गुप्त जी के ‘साकेत’ के अंश ....
सीता और राम के संवाद .....
बंधन ही का तो नाम नहीं जनपद है ?देखो कैसा स्वच्छंद यहाँ लघु नद है
इसको भी पुर में लोग बाँध लेते हैं हाँ वे इसका उपयोग बढ़ा देते हैं
पर इससे नद का नहीं उन्हीं का हित है ,पर बंधन भी क्या स्वार्थ हेतु समुचित है
मैं तो नद का परमार्थ इसे मानूंगा हित उसका उससे अधिक कौन जानूंगा
जितने प्रवाह हैं बहें अवश्य बहें वे ,निज मर्यादा में किन्तु सदैव रहें वे
केवल उनके ही लिए नहीं यह धरणी है औरों की भी भार धारिणी भरणी
जनपद के बंधन मुक्ति हेतु है सबके
यदि नियम न हो उच्छिन्न सभी हों कबके
जब हम सोने को ठोक पीट गढते हैं
तब मान मूल्य सौंदर्य सभी बढते हैं
सोना मिटटी में मिला खान में सोता
तो क्या इससे कृत कृत्य कभी वह होता
हाँ तब अनर्थ के बीज अर्थ बोता है
जब एक वर्ग में मुष्टि बद्ध वह होता है
जो संग्रह करके त्याग नहीं करता है
वह दस्यु लोक धन लूट लूट धरता है
निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी
देवत्व कठिन दनुजत्व सुलभ है नर को
नीचे से उठना सहज कहाँ ऊपर को
हम सुगति छोड़ क्यों कुमति विचारें जन की
नीचे ऊपर सर्वत्र तुल्य गति मन की