बांह पकड़ कर दीप की
बोली नई कपास
गीत लिखेगी रोशनी
ले स्नेहिल विश्वास
आभा का संकल्प ले
जले देहरी दीप
नव आशाएं उर धरे
जैसे मोती सीप
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
बांह पकड़ कर दीप की
बोली नई कपास
गीत लिखेगी रोशनी
ले स्नेहिल विश्वास
आभा का संकल्प ले
जले देहरी दीप
नव आशाएं उर धरे
जैसे मोती सीप
आकर्षक कैलेंडर भी दीवारों पर उभरे सीलन के धब्बों को छुपा नहीं पाते |
जब इन्हीं दीवारों के साथ मुझे रहना है तो क्यों इनका बदरंग होना मुझे खलता है ? क्यों बार-बार ऐसा लगता है कि दीवार पार रहने वालों की परछाइयाँ धब्बों के रूप में मुझे सताने चली आती हैं ? उनकी कमियां उनकी खामियां सभी कुछ दीवार पर उभर आते हैं | आखिर उनमें कमियां न होती तो ये दीवार हमारे बीच क्यों होती ?
यह सब सोच ही रही थी कि लगा जैसे दीवार की दरारों से शब्द फिसल रहे हैं और अनुरणन करते हुए कमरे में फ़ैल रहे हैं ,स्वर मेरा नहीं है पर शब्द अक्षरश: वही हैं ..... सीलन ...धब्बे .... खामियाँ .... शायद दीवार पार से ...