Friday, April 1, 2011

कैसा यह मुक्तिगान !!

ओ ! री शकुंतला

कैसा यह मुक्तिगान

दुष्यंत को समर्पण

कण्व की अनुमति बिना

वह तो व्यास थे कथा रचयिता

कि अंततः दिला दिए अधिकार

कभी सोचा

कण्व कितने कमजोर हुए

इस मुक्तिबोध से

दुष्यंत ने तो बांधा

प्रण को प्रमाण में

किन्तु अंगूठी भी छल गयी तुम्हें

मात्र दुर्वासा का शाप न था

यह तो दुष्यंत की मुक्ति थी

प्रण से संकल्प से

मात्र एक बहाना बना छलना

छलनाओं में जीती हुई

रिश्तों से भागती

आज की शकुंतला

घूंघट से मुक्ति का आह्वान

स्कार्फ की तहों में खुद को छुपाती

तन की कोमलता बचाती

मन से अब भी कमजोर

संसद में आरक्षित होकर

कोख में इतनी अरक्षित

मुक्ति आखिर किसकी

नारी वर्ग की

या तुम्हारे अहम की

11 comments:

  1. विचारणीय ...सार्थक सन्देश देती अच्छी रचना

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  2. सुंदर भी और विचारणीय भी ।

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  3. सुंदर कविता वन्दना जी बधाई |

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  4. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 05 - 04 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  5. जबरदस्त रचना...

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  6. संसद में आरक्षित
    कोख में अरक्षित

    समाज को सोचना चाहिये ,ये दिखावा क्यों?

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  7. bahut sundar aur sochne par majboor karti rachna

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  8. सार्थक प्रश्न उठाती बेहद प्रशंसनीय रचना।

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  9. Bahut samvedansheel ... naari man ki peeda bayaan karti ... kamaal ki rachna hai ...

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  10. sarthak rachna...bahut khub
    follow karna para...ab barabar aana parega:)

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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