ओ ! री शकुंतला
कैसा यह मुक्तिगान
दुष्यंत को समर्पण
कण्व की अनुमति बिना
वह तो व्यास थे कथा रचयिता
कि अंततः दिला दिए अधिकार
कभी सोचा
कण्व कितने कमजोर हुए
इस मुक्तिबोध से
दुष्यंत ने तो बांधा
प्रण को प्रमाण में
किन्तु अंगूठी भी छल गयी तुम्हें
मात्र दुर्वासा का शाप न था
यह तो दुष्यंत की मुक्ति थी
प्रण से संकल्प से
मात्र एक बहाना बना छलना
छलनाओं में जीती हुई
रिश्तों से भागती
आज की शकुंतला
घूंघट से मुक्ति का आह्वान
स्कार्फ की तहों में खुद को छुपाती
तन की कोमलता बचाती
मन से अब भी कमजोर
संसद में आरक्षित होकर
कोख में इतनी अरक्षित
मुक्ति आखिर किसकी
नारी वर्ग की
या तुम्हारे अहम की
विचारणीय ...सार्थक सन्देश देती अच्छी रचना
ReplyDeleteसुंदर भी और विचारणीय भी ।
ReplyDeleteसुंदर कविता वन्दना जी बधाई |
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 05 - 04 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
जबरदस्त रचना...
ReplyDeleteसंसद में आरक्षित
ReplyDeleteकोख में अरक्षित
समाज को सोचना चाहिये ,ये दिखावा क्यों?
bahut sundar aur sochne par majboor karti rachna
ReplyDeleteसार्थक प्रश्न उठाती बेहद प्रशंसनीय रचना।
ReplyDeleteshaandaar rachna
ReplyDeleteBahut samvedansheel ... naari man ki peeda bayaan karti ... kamaal ki rachna hai ...
ReplyDeletesarthak rachna...bahut khub
ReplyDeletefollow karna para...ab barabar aana parega:)