हाथों में गुब्बारे थामे शादमां हो जाएँगे।
खिलखिलाएँगे ये बच्चे तितलियाँ हो जाएँगे
जब तलक जिन्दा जड़ें हैं फुनगियाँ आबाद हैं
वरना रिश्ते रफ्ता-रफ्ता नातवां हो जाएँगे
रंग सतरंगी समेटे बस जरा सी देर को
हम भी ऐसे बुलबुलों की दास्तां हो जाएँगे
धुन में परवाजों की अपना आशियाँ भूला अगर
‘दूर तुझसे ये जमीन-ओ-आसमां हो जाएँगे’
आग जुगनू सूर्य दीपक जो हमारा नाम हो
रोशनी सिमटी तो साहब बस धुआं हो जाएँगे
वक़्त की आवाज सुन लो कह रहा बूढा शज़र
छाँव को तरसोगे तुम हम दास्तां हो जाएँगे
पैसों में गर तोलिएगा रिश्तों की मासूमियत
ये यक़ीनन दफ्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियां हो जाएँगे
(शादमां- खुश, नातवां-अशक्त , दफ्तर-ए-सूद-ओ-ज़ियां - नफ़ा नुकसान का रजिस्टर )
मिसरा -ए-तरह जनाब वाली आसी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"दूर तुझ से ये ज़मीन-ओ-आसमाँ हो जाएँगे"
2122 2122 2122 212
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
(बह्र: रमल मुसम्मन महजूफ़)