आसमान में इक्का दुक्का बादलो के
टुकड़े...मन की शून्यता जैसे इसी कैनवास पर उभर रही थी . अचानक हलकी सी नींद के बाद
मन किसी अनजाने भय से चौंक उठता और नींद पलकों से निकल कर भाग खड़ी होती .
दिन में तो रेडियो का सहारा रहता
है किन्तु रात के सन्नाटे मन के अंधेरों को और भी गहरा देते हैं . लगता है चारों
ओर कैक्टस उग रहे हैं और न जाने कब कोई एक कैक्टस का टुकड़ा दामन से चिपक जाएगा .यह
विचारमात्र शरीर के रोम रोम में चुभन उत्पन्न कर देता है .
बचपन में भी सपने आया करते थे पर
उनके रंग इतने हलके न थे .... बहुत से रंग हुआ करते थे उनमें ....तरह तरह के चित्र
बना करते थे . समुद्र झील पहाड़ पंछी फूल .....हर शै पूरे उल्लास के साथ गा रही
होती थी . और सपने ही क्यों जिंदगी भी पहाड़ी झरने की तरह सरगम बिखराती आगे बढती सी
लगती थी .
कभी कभी सोचती हूँ क्या माँ बाऊ जी
को भी आते होंगे ऐसे सपने जैसे आज मुझे आते हैं .परेशानियां चिंताएं तो तब भी हुआ
करती थीं . संयुक्त परिवार और हर नई जिम्मेदारी पहली वाली से बड़ी हुआ करती थी
लेकिन कोई भी अपने सपनों से भागता हुआ नहीं लगता था. छोटे-छोटे उन घरों में हरेक
सपने का अपना एक कोना होता था और उस कोने का अपना एक आकाश भी खुद चुरा ही लिया
करते थे लेकिन आज यह रिक्तता .....
हर त्यौहार पर घर के लिए कुछ न कुछ
खरीद ही लेती हूँ कभी फर्नीचर कभी परदे कभी सजावटी सामान किन्तु घर आने के बाद सब
बेरंग बेरौनक लगने लगता .
बहुत मेहनत से परिवार के हर सदस्य
को उनके सपनों के पीछे चलने का उत्साह दिया था तब कहाँ जानती थी कि कौन किस सपने
के पीछे मन्त्रमुग्ध सा ऐसे चल देगा कि वापस लौटने का रास्ता तक ढूँढ पायेगा
..सिर्फ आवाजें सुनाई देंगी . और शायद बरसों बाद तो वो आवाजें भी नहीं .
.. तो रात में ये पुकार जो
उन्हें बैचैन कर देती हैं क्या उन्हीं अपनों की हैं ... नहीं ये उनकी नहीं हैं
क्योंकि वो लोग तो अब पुकारते ही नहीं . बस बाते करते हैं वो भी फोन पर सहलाने की
...अपनी मजबूरियों की ..डरते हैं वे कि पुकारने पर कहीं पहले की तरह मैं एक साया
बनकर खड़ी हो गयी तो प्यार से अपना हाथ
उनके माथे पर फेरने लगी तो ... न! न!
झुर्रियां पड़े ये हाथ अब उतने मजबूत थोड़े ही रह गए हैं जो मात्र एक अंगुली के
सहारे दलदल से निकाल घास के मैदानों में तितली पकड़ने के लिए छोड़ आया करते थे
पानी पीकर फिर से सोने की कोशिश
करने लगी . अब बताओ निंदिया रानी तुम्हे मनाने के लिए क्या करूँ ...? लोरियां तो अब
याद भी नहीं रहीं एक एक कर सब चुक गयीं ..अ... हाँ याद करने की कोशिश भी नहीं करती
भला अपने लिए लोरियां गाता भी कौन है और दूसरे किसी को सुनने की फुर्सत भी नहीं रज्जो
की बेटी को भी नहीं .
रज्जो .. काम वाली ...उसकी
बिटिया तो खुद समय से पहले बड़ी होने लगी है उसे लोरियां नहीं सुनाई देती बस
बर्तनों की खटपट सुनती है एक घर से दूसरे घर भागते हुए माँ के आगे या माँ के पीछे
.क्या रज्जो सुनाती होगी उसे लोरियां ? नहीं रात को तो वह अपने शराबी पिता की गालियाँ सुनकर ही सो जाती
होगी .
“तुझे सपने आते हैं रज्जो ?” एक दिन मैंने पूछा था.
“सपने ...!! न बीबीजी सपनों का कहाँ टेम है थक कर नींद कब आई और कब उठने का टेम
हो गया पता ही नहीं चलता ...”
हाँ ऐसा समय तो मेरा भी था तब घर
में जगह कम और प्राणी ज्यादा थे .बड़े होने के नाते कमाने की जिम्मेदारी मुझ पर
ज्यादा थी .
अब घर में हर साल दीवारें आयल
पेंट से सजती हैं तब सफेदी भी कई बरसों में नसीब होती थी दरवाजों पर महँगे परदे
नहीं माँ की इक्का दुक्का कम घिसी साडी टंगी होती थी . न होने पर भी किसी को याद
नहीं आता था कि परदे की जरूरत भी है . सब आँखों के परदे को ही महत्व देते थे .
बिना नए कपड़ों के भी दीवाली का
उल्लास फूटते अनारों से ज्यादा खिलखिलाते चेहरों पर दिखता था अब तो चेहरों पर कब
दीवाली आई कब होली गयी पता ही नहीं चलता
हाथ बढ़ाकर लैंप जलाया देखूं तो
क्या समय हुआ है ? चलो तीन तो बज ही चुके
हैं डेढ़ दो घंटों में सूरज का उजाला भी फैलने लगेगा .
सामने दीवार पर एस .एस .
हल्दानकर की पेंटिंग लगी है सीधे पल्ले की साडी पहने तन्मयता से दीप जलाती महिला
मनोयोग से रौशनी को बुलाती प्रतीत होती है पेंटिंग का नाम है “दैविक लौ” . कैसे पायी जाती होगी यह दैविक लौ ?
चित्र गूगल से साभार
कबीर मीरा रैदास ...क्या सबने वास्तव में कर लिया होगा अपनी आत्मा में परमात्मा का
साक्षात् ....हाँ तभी तो डूब कर गाया उन्होंने और आज सदियों बाद भी कोई उन गीतों
के पास से गुजर जाये तो रसानन्द के छींटे पड़ ही जाते हैं . तदाकार हो पाए तो शायद
पावन डुबकी का सुख भी मिल ही जाए , किन्तु अहंकार इस सुख तक पहुँचाने ही कहाँ देता
है ? ये अहंकार भी कितना अजीब भाव है ?जब तक दूसरे के पास है जिद या अभिमान कहलाता
है और जब मेरे पास हो तो इसे आत्मसम्मान का दर्जा दे दिया जाता है . सचमुच इसके
स्वरूप को पहचानना है टेढ़ी खीर . तभी तो आँख बंद करके खुद में झाँकने से डर लगता
है .
“आँखे बंद कर ही लूँ” मैंने सोचा .कुछ ही देर में चकवा चकवी के स्वर
सुनाई देने लगे .रात के बिछड़े पंछी एक दूसरे को पुकारने लगे हैं .कितना उल्लास है
इनके स्वर में ....कितनी चंचलता . सुबह सुबह ये गहरे भूरे रंग के चकवा चकवी और दिन
में इक्की दुक्की गौरैया दिख जाते है दूसरे पंछी तो अब कभी-कभी ही दिखाई देते हैं.
कहाँ गए होंगें ? पेड़ पौधे तो रहे नहीं . पहले कितने पेड़ थे कॉलोनी में अब तो घरों
की बालकोनियाँ ही सड़कों के ऊपर तक छ गयी हैं पेड़ पौधों की जगह तो 8 -10 फुट के लॉन
कमरों में बोनसाई के रूप में सिमट कर रह गयी है .
छुटका भी
घर का विस्तार तो करना चाहता है पर बजट ने हाथ बाँध रखे हैं मेरे सामने भी
प्रस्ताव तो रखा था पर घर के पुराने स्वरूप के मोहवश मैं चुप ही रही .भाभी व बच्चों
को यह चुप्पी खली थी वो उन लोगों के चेहरे पर साफ़ दिख रहा था उनके मूड भी कहाँ तक
देखे जाएँ . न तो मैं बच्चों की बुआ थी न भाभी की
ननद ले देकर छुटके से तुम्हारी बहन
कह कर ही संबोधित किया जाता था त्यौहारों पर कहीं बहन को नेग देना होता तो पीछे
हाथ बांधकर खड़ी हो जाती “तुम्हारी बहन है तुम ही दो.” रिश्ता
मुझसे कुछ नहीं था लेकिन अगर इनके बच्चे तरक्की नहीं कर रहे तो दोष मेरा होता मैं
ही उनके भाग्य की अड़चन ठहराई जाती .
लगता था
परिवार की परिभाषा ही बदली है पर एक इकाई तो रह ही जाउंगी .लेकिन रिश्तेदारों ने
भी इकाई सा मानने से इनकार कर दिया है तभी तो किसी भी न्यौते के कार्ड पर मेरा
जिक्र तक नहीं होता सोचते सोचते खिड़की में आ बैठी थी. जहाँ से बगीचा दिखाई देता है
तराशे हुए पौधे हैं जिनकी देखभाल माली करता है फिर भी रंगत नहीं दिखाई देती. बसंत
की ऋतु के आने जाने का भी आभास नहीं हो पाता . पता नहीं मन का पतझड़ है या मौसम की
चाल बदल गयी है .उस दिन माली को टोक बैठी थी – “इन पौधों
में देसी खाद लाकर डालो .” पर माली से पहले ही छुटका बोल पड़ा – “ दीदी आप
दूसरों के काम में क्यों दखलंदाजी करती हो उसे भी तो अपने काम की नॉलेज होगी”
शायद
छुटके के कहने का असर तो न होता पर उसके बच्चों को फिस्स से हँसते देख मन खट्टा हो
गया था ...माना नई तकनीक के साथ कदम ताल करने की हिम्मत नहीं बची लेकिन आई .क्यू.
लेवल तो आज भी नए ज्ञान को अपना सकने का सामर्थ्य रखता है ...दोष बच्चों का है या
माता पिता के संस्कारों का .
बगीचे
में आज ताजा खिले किसी फूल को तलाशने लगी रात बीत चुकी थी सपना बीत गया था लेकिन
मन तनाव से बोझिल था . फिर आँखे मुंदने लगी और एक चित्र तैर गया नवरात्रों के
पंडाल ...बेहद खूबसूरत मूर्तियाँ और कलकत्ता के पंडालों में देवी की मूर्तियों के
साथ मदर टेरेसा की मूर्ति ....!!! हाँ कर्म से मदर टेरेसा कलकत्ता वासियों की ही
नहीं बल्कि पूरी दुनिया में माँ के नाम से जानी जाती हैं .
अचानक लगा कि रात के
प्रश्न हल हो रहें हैं सपनों को दिशा मिल रही है और अब जागती आँखों से देख रही हूँ
एक आश्रम का सपना जहाँ मेरी तरह कुछ पेंशन प्राप्त व्यक्ति अनाथ और असहाय लोगों के
कल्याण के लिए योगदान देंगे . दैहिक और दैविक परिवार से इतर एक दुनिया और सपनों के आकाश का एक अपना कोना....