निर्मल आँखें
पलक फलक एक करती हुई
सीने मे उठती हिलोर
ढीली पकड़ी किसी चरखी सा
निरंतर खुल रहा है मन
साँसों की उत्ताल तरंगे
पकड़ लेना चाहती हैं
सामने से गुजरती डोर
वही डोर जिससे बंधा वो आसमान
जहाँ तैरते अनगिन सपने
पीले नीले लाल गुलाबी
पतंगों के रूप मे
अचानक एक ठोकर
और सामने बिखर गए हैं सपने
नहीं सिर्फ टूटे हैं उसके हाथों
चाय के गिलास
बल्कि
हो गयी हैं किरचियां अरमानों की
वजूद उसका हो गया है
लुटेरों के बीच कटी पतंग सा
ओह ...बहुत मार्मिक रचना ..बच्चों के सपने कांच के गिलास जैसे
ReplyDeletedil ko chhuti rachna
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