स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Tuesday, October 13, 2015
Friday, May 15, 2015
न डर तू सलोनी....
बहुत तेज है धूप संसार की
सुलभ छाँव तेरे लिए प्यार की
उदासी मिटा वेदना मैं हरूँ
व्यथा पीर आये सताए मुझे
मगर आँच छूने न पाए तुझे
न डर तू सलोनी कि मैं साथ हूँ
धरे आज काँधे सबल हाथ हूँ
सुना था कि कहते तुझे सब सदय
धरा जब हिली तो न कांपा हृदय
बता लेख कैसे विधाता लिखा
कहीं क्रूर कुछ भी न तुझको दिखा
सरलमन बहन तू सरस काव्य है
मधुरतम प्रियंकर व स्तुत भाव्य है
बड़ा तो नहीं मैं मगर भ्रातृ
हूँ
सुरक्षा वचन से बँधा कर्तृ हूँ
-वंदना
चित्र गूगल से साभार
इस चित्र पर कविता आयोजन भी नेट से साभार
लेबल:
कविता
Monday, March 30, 2015
दिलों के खेल में......
ग़ज़ल या गीत हो अय्यारियाँ नहीं चलतीं
फ़कत ही लफ्जों की तहदारियाँ नहीं चलतीं
ये सोच कर ही बढ़ाना उधर कदम हमदम
जुनूं की राह में फुलवारियाँ नहीं चलतीं
न काम आये हैं घोड़े न हाथी काम आयेंगे
बिसाते-दहर पे मुख्तारियाँ नहीं चलतीं
कशीदे से लिखी जाती थी प्यारी तहरीरें
घरों में अब तो वो गुलकारियाँ नहीं चलतीं
सफ़र वही रहे आसां कि हमकदम जिनके
चलें तो कूच की तैयारियाँ नहीं चलतीं
रिवाजे-नौ तेरी राहों की आजमाइश में
चलन हो नेक तो दुश्वारियां नहीं चलतीं
मिटा दे फासले अब तो सभी ये तू मैं के
‘दिलों के खेल में खुद्दारियाँ नहीं चलतीं’
तरही मिसरा आदरणीय शायर कैफ भोपाली साहब का
लेबल:
ग़ज़ल/अगज़ल
Wednesday, March 25, 2015
माँ का आंगन
बड़ी नगरिया मुझे दिखाने लेकर तुम आये बाबा
हाँ ये माना इस नगरी में सुख
सागर लहराता है
किन्तु गाँव के पोखर जैसा ना यह पास बुलाता है
कभी सताऊं कभी मनाऊं जा पीछे
अँखियाँ मींचूँ
ना मुनिया है ना दिदिया ही
चोटी जिनकी मैं खींचूँ
पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ
भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां
वो माटी घर छप्पर वाला सौंधी खुशबू वाला था
बाट जोहता माँ का आंगन जादू अजब निराला था
बड़ा बहुत यह शहर अजनबी जादूगर झोले जैसा
धरें किनारे बैठ चैन से बतियाएं तो हो कैसा
ताटंक छंद - रचनाकर्म के लिए ओबीओ परिवार का विशेष आभार
चित्र गूगल से साभार
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छंद आधारित
Friday, March 6, 2015
बासंती खुरचन
रंग पलाशी भीनी
पुलकन
चलो चुगें बासंती
खुरचन
गालों पर चटकी
अरुणाई
झाँक झरोखे से
मुस्काई
ओट ओढ़नी की शरमाई
उषा किरण सी प्यारी
दुल्हन
गुल गुलाल से अंग
महकते
फाग रागिनी सभी
बहकते
ढोल बाँसुरी चंग
चहकते
बूढ़े बच्चे चलें
ठुमकते
मन उपवन सब नंदन
नंदन
मधुर मधुर मिश्री की
डलियां
फागुन की अल्हड़
कनबतियां
रागरंग में डूबी
सखियाँ
मस्त मस्त हैं मधुकर
कलियाँ
आज न आड़े कोई अडचन
लेबल:
नवगीत
Monday, January 26, 2015
Sunday, January 18, 2015
अच्छे दिन ……
नवकोंपलों के स्वागत में
देह भर उत्साह से उमगते
कण-कण को वासन्तिक बनाने में
प्राणवायु उलीचते
कर्तव्य हवन में
स्वयं समिधा बन
जो पाया उसे लौटाते
पात-पात तिनका-तिनका
'इदं न मम' कहकर
आहुति देते
देव ,ऋषि
और पितृ ऋण से
मुक्त होना सिखलाते
ये वृक्ष पूछा करते हैं
कि ऋणानुबंधों की
सुनहरी लिखावट की
स्याही में डूबे
क्या कभी आया करते हैं
अच्छे दिन !
चित्र गूगल से साभार
चित्र गूगल से साभार
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कविता
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