Wednesday, April 13, 2011

पतंग लूटता बच्चा

निर्मल आँखें

पलक फलक एक करती हुई

सीने मे उठती हिलोर

ढीली पकड़ी किसी चरखी सा

निरंतर खुल रहा है मन

साँसों की उत्ताल तरंगे

पकड़ लेना चाहती हैं

सामने से गुजरती डोर

वही डोर जिससे बंधा वो आसमान

जहाँ तैरते अनगिन सपने

पीले नीले लाल गुलाबी

पतंगों के रूप मे

अचानक एक ठोकर

और सामने बिखर गए हैं सपने

नहीं सिर्फ टूटे हैं उसके हाथों

चाय के गिलास

बल्कि

हो गयी हैं किरचियां अरमानों की

वजूद उसका हो गया है

लुटेरों के बीच कटी पतंग सा

2 comments:

  1. ओह ...बहुत मार्मिक रचना ..बच्चों के सपने कांच के गिलास जैसे

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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