आत्ममुग्ध मानव करे प्रकृति से परिहास
बूँद बूँद की याचना हलक जड़ी है फाँस
मजबूरी मजदूर की कर्जदार है साँस
मंगल क्या एकादशी रोज रहे उपवास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास
प्याऊ लगवाना जहाँ इक पवित्र था काम
बोतल पानी की बिके आज वहां अविराम
जीवन मूल्य अमोल का नित देखें हम ह्रास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास
त्रस्त हो रहा प्यास से है मानव बेहाल
गायब हैं इस दृश्य से उनका कौन हवाल
पंछी पौधे मूक पशु सब झेलें संत्रास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास
चित्र : नेट पर काव्य आयोजन से साभार
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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर