राह निकली जरा सादगी की तरफ
और झुकने लगी रोशनी की तरफ
खुद का सम्मान चाहें वो दे गालियाँ
गौर फरमाइए मसखरी की तरफ
आ गए हम न जाने ये किस मोड़ पर
उठ रहे क्यों कदम गुमरही की तरफ
ईद के बाद देखी नहीं सब्जियाँ
कर्ज ऐसे चढ़ा मुफलिसी की तरफ
ये शिकायत कभी माँ तो करती नहीं
हमने देखा नहीं जिंदगी की तरफ
हाँ जरा शाम का रंग चढ़ने तो दो
चल पड़ेंगे कदम आरती की तरफ
पत्थरों की ही मानिंद बहना मुझे
इक शिवाला कहे चल नदी की तरफ
बहर मुतदारिक मुसम्मन सालिम
तरही मिसरा आदरणीय जनाब अहसान बिन दानिश साहब की ग़ज़ल से ‘हमने देखा
नहीं जिंदगी की तरफ ‘
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