बन जाऊं एक कलम सी
तुम्हारी शाख हो जाऊं
छोड़ बाबुल की क्यारी
तुम्हारी जड़ों से जुड जाऊं
ताप भी विलगा न सके
नेह बूंदों से सींचोगे
केवल प्रेम डोर से ही
बंधन मजबूत होंगे
और तब पत्ते दर पत्ते
विश्वास पनप जाएगा
एक हो जायेंगी साँसे
आँगन महक जाएगा
स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
बन जाऊं एक कलम सी
तुम्हारी शाख हो जाऊं
छोड़ बाबुल की क्यारी
तुम्हारी जड़ों से जुड जाऊं
ताप भी विलगा न सके
नेह बूंदों से सींचोगे
केवल प्रेम डोर से ही
बंधन मजबूत होंगे
और तब पत्ते दर पत्ते
विश्वास पनप जाएगा
एक हो जायेंगी साँसे
आँगन महक जाएगा
सुन्दर.......अभिनव काव्य
ReplyDeleteबहुत ही ममस्पर्सी चित्रण, मार्मिक, सुखद आवेदन , सराहनीय सृजन , शुभकामनायें .....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत भाव ..
ReplyDeleteबहुत खूब वंदना जी.
ReplyDelete----------------
कल 19/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सुन्दर भावाभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावार्थ से सजी कविता वन्दना जी बधाई और शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ बेहतरीन लेखन के लिए .....शुभकामनायें
ReplyDeleteपत्ते दर पत्ते विश्वास पनप जायेगा, एक हो जाएँगी साँसे आँगन महक जायेगा
ReplyDelete.... बहुत ही ख़ूबसूरत भाव वंदना जी.... पौधे को नयी जगह रोपने में इस विश्वास की ही तो जरुरत है.... नेह और विश्वास होगा तभी तो अपनी ज़मीन से उखड़कर नए आँगन में शाख जियेगी...
vishwaas ki sugbugati nishtha
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी नज़्म , एक नया अनुभव हुआ आपको पढकर.. प्रेम कि नई अभिव्यक्ति को सलाम..
ReplyDeleteआभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html