Sunday, July 17, 2011

तुम्हारी शाख


बन जाऊं एक कलम सी

तुम्हारी शाख हो जाऊं

छोड़ बाबुल की क्यारी

तुम्हारी जड़ों से जुड जाऊं

ताप भी विलगा न सके

नेह बूंदों से सींचोगे

केवल प्रेम डोर से ही

बंधन मजबूत होंगे

और तब पत्ते दर पत्ते

विश्वास पनप जाएगा

एक हो जायेंगी साँसे

आँगन महक जाएगा

10 comments:

  1. सुन्दर.......अभिनव काव्य

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  2. बहुत ही ममस्पर्सी चित्रण, मार्मिक, सुखद आवेदन , सराहनीय सृजन , शुभकामनायें .....

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  3. बहुत खूब वंदना जी.
    ----------------
    कल 19/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  4. सुन्दर भावाभिव्यक्ति..

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  5. बहुत सुंदर भावार्थ से सजी कविता वन्दना जी बधाई और शुभकामनायें

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  6. बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ बेहतरीन लेखन के लिए .....शुभकामनायें

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  7. पत्ते दर पत्ते विश्वास पनप जायेगा, एक हो जाएँगी साँसे आँगन महक जायेगा

    .... बहुत ही ख़ूबसूरत भाव वंदना जी.... पौधे को नयी जगह रोपने में इस विश्वास की ही तो जरुरत है.... नेह और विश्वास होगा तभी तो अपनी ज़मीन से उखड़कर नए आँगन में शाख जियेगी...

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  8. बहुत ही अच्छी नज़्म , एक नया अनुभव हुआ आपको पढकर.. प्रेम कि नई अभिव्यक्ति को सलाम..

    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

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