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Sunday, February 5, 2012

जमीर ही खड़ा है


सुधियों में आज भी
मोती सा जड़ा है
प्रश्न ले झोली में
जमीर ही खड़ा है

गुलमोहर के फूल
और सिरस की गंध
बिसरे तेरे वादे
कुछ मेरे अनुबंध
यादों की गली में
बिखरा सब पड़ा है

धार में अँसुवन की
जो बह  भी न पाया
बाते थी स्वजन की
 जो कह भी न पाया
मन की कली कोमल
कांटा सा गडाहै

वह था तेरा अहम
या मेरा अभिमान
दरकता था दर्पण
या छूटा सम्मान
सोचते थे दोनों
जिद पे क्यों अडा है

20 comments:

  1. वाह क्या बात है...एकदम से सहमत होने जैसा...

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  2. प्रश्न बनके जब जमीर खड़ा हो जाए
    दिल का कांटा सहज ही निकल जाए

    उम्दा भाव हैं।

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  3. सामंजस्य के वृहद् फलक को सुन्दर शब्दों व भावों में समेटती रचना अपने प्रवाह में बहा रही है ..अच्छा लिखती हैं आप..

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  4. वंदना ! बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  5. बेहतरीन रचना।

    सादर

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  6. कल 07/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  7. वाह! बहुत सुन्दर!

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  8. उत्तम....सहजता से कहते मन के भाव....

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  9. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  10. गहन अभिव्यक्ति...

    उत्तम रचना.

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  11. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  12. Bahut sundar :)


    palchhin-aditya.blogspot.in

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  13. सुंदर गीत में कोमल भाव.

    बधाई.

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  14. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...

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  15. गहन .... विचारणीय प्रश्न

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  16. वन्दना जी बहुत सुन्दर कविता बधाई |

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  17. शब्दों की जिद ने कविता को सुंदर बना दिया है।

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  18. SOFT AND SWEET STRAIGHT EXPRESSION
    THANKS

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर