अपनी ज़रूरतें कांट छाँट
जिसने ज़िन्दगी को सिया है
हलक से बाहर न आने पाए
अरमानों को पिया है
उस माँ की स्नेहिल छाया से
क्रमशः दूर
और दूर होते
ऊँचाइयों पर बढ़ते
उसके लाडलों ने
हवाओं को
कमरे में
कैद कर लिया है
बौनी ज़रूरतों को ढूंढती
इच्छाएं बढती रही
भूसे के ढेर सी
उड़ा न दे कहीं कोई
साँसों को केप्सूल में
बंद कर लिया है
धरती का यह बेटा
सुविधाएँ जुटा रहा है
या सामान दर्द के बटोर रहा है
क्या जाने नादान
माँ की उंगली छोड़
कब बैसाखियों को थाम लिया है ।
वंदना जी ..खेद है पर कुछ नहीं पढ़ पा रहा ,,,पोस्ट में शीर्षक के आलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा
ReplyDeleteपिछले रचनाएं अच्छी लगी
ReplyDeleteधरती का यह बेटा
ReplyDeleteसुविधाएँ जुटा रहा है
या सामान दर्द के बटोर रहा है
क्या जाने नादान
माँ की उंगली छोड़
कब बैसाखियों को थाम लिया है । ...waah sundar ....achhi kavita