बस्ते में मेरे कैसे सिमट सकती है दुनिया
जी चाहता है मैना बुलबुल के गीत सुनने
बारिश में भीगने का सपना लगा हूँ बुनने
केवल तस्वीरों में टंगे देखे मैंने नदी झरने
बंद कमरों में कौन आएगा कल कल का नाद भरने
चारों तरफ है मेरे बंद कांच की खिड़कियाँ
छूने को आसमां मचलती मेरी हथेलियाँ
बैठूं न कभी छत पर देखी न मंदाकिनियाँ
किताबों से कैसे नापूं चाँद तारों की दूरियां
पंख तो है मेरे पास मुझे आकाश चाहिए
मुझ जैसा ही नन्हा सा मुझे विश्वास चाहिए
पिंजरे से बाहर खुली हवा का आभास चाहिए
मन में उठते हर सवाल का मुझे ज़वाब चाहिए ।
No comments:
Post a Comment
आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर