बेशक
आसमां ने मौन रहकर
दी है सहमति मेरे सपनों को
और धरती ..
हां उसने भी
चुप साध ली है
न वो दर्द बयां करती है
न मैंने समझने की
कोशिश ही की
उसकी चुप्पी भी
सहमति में ही गिनी मैंने
पेड़ की चुप्पियों से
आरियों की धार
तेज होती रही
झुकी डालियों ने
लुटा दी
समस्त संपदा अपनी
उनका मौन भी
सहमति में शुमार हुआ
पर हर चुप्पी तो
सहमति नहीं होती !!
-वंदना
सही कहा। उन चुप्पियों को शब्दों से तोड़ना भी तो जरूरी है। सुन्दर सृजन।
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