Pages

Saturday, October 22, 2016


 प्रगति के दिन दूर नहीं, मिलें सुखद परिणाम
तन्मय होकर सब करें, अपना-अपना काम

स्वप्न सदा बस देश हित, एक यही अनुकाम
अंकित हों सम्मान से, चन्दन चर्चित नाम

बिटिया चिंता मुक्त है, रक्षित घर की सींव
प्रहरी भी निश्चिन्त लख, नव नीड़ों की नींव

सेना के संकल्प का, बिटिया रखती मान

देते सैनिक हौसला, छुटकी भरे उड़ान 

Saturday, August 20, 2016

ले चुग्गा विश्वास से

दोहागीत
दाना देते चोंच में पिता प्रेम अनमोल
ले चुग्गा विश्वास से बिटिया री मुँह खोल

छंद रचे या श्लोक तू नित्य नए हर बार
तुतली वाणी में बहे कविता की रस धार
चूँचूँ चींचीं रूप में मीठी मीठी बोल
ले चुग्गा ......

ठहर जरा भरपूर ले अपना यह आहार
फिर उड़ना आकाश में अपने पंख पसार
स्वप्निल एक वितान तू अरमानों से तोल
ले चुग्गा ......

मर्यादित रहना सदा हो सीमा का भान
बाधाएँ आती डरे रक्षित निज सम्मान
ओलम्पिक की रेस हो या जीवन का झोल
ले चुग्गा विश्वास से बिटिया री मुँह खोल



चित्र गूगल से साभार 



Thursday, August 4, 2016

हमने देखा नहीं जिंदगी की तरफ

राह निकली जरा सादगी की तरफ
और झुकने लगी रोशनी की तरफ

खुद का सम्मान चाहें वो दे गालियाँ
गौर फरमाइए मसखरी की तरफ

आ गए हम न जाने ये किस मोड़ पर
उठ रहे क्यों कदम गुमरही की तरफ

ईद के बाद देखी नहीं सब्जियाँ
कर्ज ऐसे चढ़ा मुफलिसी की तरफ

ये शिकायत कभी माँ तो करती नहीं
हमने देखा नहीं जिंदगी की तरफ

हाँ जरा शाम का रंग चढ़ने तो दो
चल पड़ेंगे कदम आरती की तरफ

पत्थरों की ही मानिंद बहना मुझे
इक शिवाला कहे चल नदी की तरफ

बहर मुतदारिक मुसम्मन सालिम

तरही मिसरा आदरणीय जनाब अहसान बिन दानिश साहब की ग़ज़ल से ‘हमने देखा नहीं जिंदगी की तरफ ‘

Saturday, June 25, 2016

जब भी जुनून ले के कोई जिद से डट गया
ये देखो आसमान तो सपनों से अट गया

आकर करीब देखा तो जलवा सिमट गया
"कैसा था वो पहाड़ जो रस्ते से हट गया"

बेख़ौफ़ बढ़ रहा था कि पिघली थी रोशनी
पर धूप जब चढ़ी तो लो साया भी घट गया

ऊंची दुकां  में बिकती हैं फर्जी ये डिग्रियां
शिक्षा का हाल देख  कलेजा ही फट गया

रेखा मेरे करीब से लम्बी गुजर गयी
था कुछ वजूद छोटा तो कुछ और घट गया

हाँ बर्फ सी जमी तो मेरे चारों ओर है
पर क्या  हुआ कि रिश्ता नमी से ही कट गया

वो  ढूँढना तो चाहता था चैन की ख़ुराक
लेकिन दिलो-दिमाग की उलझन में बट गया  



  तरही मिसरा "कैसा था वो पहाड़ जो रस्ते से हट गया"
आदरणीय शायर जनाब कतील शिफ़ाई की ग़ज़ल से 


मफऊलु फाइलातु मुफाईलु फाइलुन
221 2121 1221 212
(बह्र:  मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ )

Saturday, May 28, 2016

“फूल जंगल में खिले किन के लिए”


नव सुहागिन या वियोगिन के लिए
तारे टाँके रात ने किन के लिए

नीतियों के संग होंगी रीतियाँ
मैं चली हूँ आस के तिनके लिए

बात आसां थी समझ आई मगर
हम अड़े हैं किन्तु-लेकिन के लिए

माँ दुआएँ बाँधती ताबीज में
कीलती है काल निसदिन के लिए

साधनारत हैं स्वयं ये और क्या
“फूल जंगल में खिले किन के लिए”

बाग़ चौपालों बिना बैठें कहाँ
हो कहाँ संवाद पलछिन के लिए  

विष पियाला या पिटारी साँप की
क्या परीक्षा शेष भक्तिन के लिए


-मिसरा-ए-तरह आदरणीय शायर जनाब अमीर मीनाई साहब का 
बह्र: रमल मुसद्दस् महजूफ  

Sunday, May 22, 2016

हलक जड़ी है फाँस


आत्ममुग्ध मानव करे प्रकृति से परिहास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास

बूँद बूँद की याचना  हलक जड़ी है फाँस
मजबूरी मजदूर की कर्जदार है साँस
मंगल क्या एकादशी रोज रहे उपवास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास


प्याऊ लगवाना जहाँ इक पवित्र था काम
बोतल पानी की बिके आज वहां अविराम
जीवन मूल्य अमोल का नित देखें हम ह्रास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास


त्रस्त हो रहा प्यास से है मानव  बेहाल
गायब हैं इस दृश्य से उनका कौन हवाल
पंछी पौधे मूक पशु सब झेलें संत्रास
खेल रहा नित आग से देकर नाम विकास



चित्र : नेट पर काव्य आयोजन से साभार 




Thursday, February 11, 2016

कोहरे के पार ...वसंत


अलसाई सी कुछ किरणें
अंगड़ाई ले रही होंगी
या फिर 
घास पर फैली ओस
बादलों से मिलने की होड़ में
दम आजमा रहीं होंगी
वो तितलियाँ
जो धनक पहन कर सोई थीं
अपनी जुम्बिश से
आसमां में रंग भर रही होंगी
आखिर
तिलिस्म ही तो है 
कोहरा
अपनी झोली में
न जाने
क्या कुछ छुपाये होगा  
उस पार
शायद वसंत होगा