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Saturday, December 24, 2011

रिश्तों का मेला



देखा रिश्तों का मेला
जहाँ थे
अलग अलग कीमत के लोग
सबसे अधिक थी कीमत उनकी
जिनकी ऊपरी फुनगी का
नहीं मिलता छोर
फैले हैं ऐसे
कि मूल जड़ भी लापता है
लेकिन शाखाएँ
टिका देते हैं
 कहीं से भी
निकाल जड़ों को
जब जहाँ चाहिए होता है अवलंब


मध्यम कीमत के थे
वे लोग
जिनके मूल तना
 और पत्तियां
 सब स्पष्ट होते है
 इनके
सहजीवी होने का भाव
उत्सवों की शोभा बनता है

और 
सबसे कम होती है 
 कीमत उनकी
जिनकी न जड़ होती है
न पत्तियाँ
ये परजीवी होते हैं
और
परमुखापेक्षी हो कर
बिताते हैं जीवन

आक्रांत रहते हैं
बड़े वृक्ष इनसे
इसीलिये
इनकी कीमत
मिलती है केवल तभी
जब भीड़ की सेवा में
भीड़ की जरूरत होती है 


picture source : google image 

Saturday, December 17, 2011

एक और एक



उन्हें
एक और एक ग्यारह नहीं                           1+1=11......                           
                                                                            
एक होना था    ......                                           
केवल एक
और वे हुए भी
उनमें से एक
या तो पंगु हुआ
या परजीवी
और
अस्तित्व  
एक का ही बाकी रहा                1+1=01
                                                  


Sunday, December 11, 2011

कल्पना बनाम यथार्थ



नहीं छलती कल्पना उतना
जितना यथार्थ ने छला है
जो सामने है
वही एक सच है
यह दिखलाने की कला में
न जाने कितनी बार
मासूम एक सपना जला है
वो वैरभाव किस कोख में पनपा
और दुर्विनीत
बिन माँ के बच्चे सा पला है
श्रद्धा की गोद में
जिसे खेलना था
प्यार के काँधे पर बैठकर
मेला देखना था
तृष्णा और स्वार्थ की
 देहरी पर
याचक सा खड़ा है
जो नया करना जानते हैं
मानते हैं सपनो की नींव को
उन्हें
पृथ्वी की परिधि के बाहर
अंतरिक्ष में जाने को
कल्प हंस की पाँखों पर
बैठने का
हौसला जुटाना ही पड़ा है 

Saturday, December 3, 2011

समय


समय !
तुझे एक सी धडकन धड्काए है
मैंने तो उतार चढ़ाव पाए हैं
तेरे पीछे दौड़ना पडा मुझे
जब देखा
जलते दरख्तों के साये हैं
उठती गिरती लहरों पर ही
जिंदगी के दाँव आजमाए हैं
तू साक्षी है
 बस अच्छे और बुरे का
मैंने झेले घाव खुद सहलाये हैं
सरोकार नहीं तुझे
पीले पत्तों से
पकड़ उन्हीं की उंगली
हम चल पाए हैं
निर्जीव दुनिया की इस भीड़ में
अपने होने का अहसास गरमाये है
हर फूल धूल में मिलेगा मगर
आज को जी लें
यह सोच मुस्कुराये है 
नदी की तरह
निरंतर बह लेते
चंद लकीरों ने
रोडे अटकाए हैं
हर सांस 
इक समर रही मेरे लिए
तूने अमरत्व के दान पाए हैं