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Thursday, October 20, 2011

औरत


औरत नहीं कठपुतली

अनगिन हाथों में डोरी

रंगमंच पर घूमती फिरकी

सब चाहते उसमें

अपना किरदार

हाथों में सपनों की डोरी

फंदे दर फंदे बुनती

यूँ ही छूट जाता है कभी

हाथ रह जाता

केवल शुरुआती तार

जीवन एक तनी रस्सी

पग पग संभलती चलती

कब काट जाती है

कोई तेज धार सी

चुपके से उसके बांस के आधार

पीड़ा कण कण बिखरती

आशा फिर क्षण क्षण पलती

सुना ही नहीं पाती कभी

नेपथ्य में बजता

मन का सितार

चाहती मुस्कुराहटों से भरी

अल्पना से सजी धरती

आसमां में प्रीत रंग भरती

हे देव ! मिले

विश्वास को विस्तार ........

13 comments:

  1. सभी क्षणिकाएँ बहुत गहन भाव लिए है..सुन्दर प्रस्तुति....बधाई...

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  2. सभी क्षणिकाएँ अच्छी लगीं ...

    हाथ रह जाता शुरूआती तार ... सटीक कहा है ..

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  3. बहुत सुन्दर भावमयी क्षणिकायें।

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  4. जीवन एक तनी रस्सी

    पग पग संभलती चलती

    कब काट जाती है

    कोई तेज धार सी

    चुपके से उसके बांस के आधार

    बहुत सुन्दर लगी ये पंक्तियाँ|

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  5. भावपूर्ण क्षणिकायें!

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  6. गहरी अभिव्यक्ति ...
    सुन्दर क्षणिकाएँ ..

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  7. भावपूर्ण संवेदनशील सृजन .... शुक्रिया जी /

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  8. छोटी बात = गहरी बात

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  9. bahut gahri baat kah di aapne kam shabdon me....

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  10. एक स्त्री कि बात बहुत हि मार्मिक तरीके से !
    दीवाली कि शुभकामनायें!

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  11. नारी मन की व्यथा को रेखांकित करती भावपूर्ण कविताएं।

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  12. बहुत खूब.
    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं..

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर