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Sunday, June 20, 2010

ग़ज़ल ( काश मुखर होती ...)

काश मुखर होती इतनी मेरी पीर
बिन बोले भी जुबां कहलाती कबीर

मर जाने के बाद बनती थी मज़ार
लाशों पर होती अब महलों की ताबीर

सूरज भी अब तो रहा नहीं बेदाग़
जब अंधियारे बन बैठे हैं वजीर

जाए मंदिर में पूजा या ठोकर खाए
हर पत्थर की होती अपनी ही तकदीर

बगुला भगतों के बीच होना है चुनाव
लोकतंत्र का मतलब अँधेरे का तीर

गुरूर जिनको कि हमारा जिंदा है ज़मीर
स्वाभिमान की चौखट ताउम्र रहें फकीर

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर