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Sunday, June 20, 2010

कैसे मैं जियूं !

छुई मुई सी सिमटूं
या कि खुशबू बन बिखरूं
समझ नहीं आता
कैसे मैं जियूं
पंछियों सी उडू
जब जी चाहे उतरूँ चढ़ूँ
या पतंग की डोर
दूसरों को सौंप दूँ
कि शाखों में उलझूं
तो झटक कर
तोड़ ले वो डोर
और मैं
अंतिम साँस तक
चीर चीर होते हुए
मृत्यु की प्रतीक्षा करूँ
जी तो चाहे बारिश में
भीगे पत्तों सी
इठलाऊं हंसूं
चुटकी भर धूप सुख की
नयन बदरिया संग
मन के उजले भावों से
इन्द्रधनुष बुनूं
क्यों न नदी बनूँ
उम्र भर बहते रहकर
अनंत अथाह को हो समर्पित
बूंदों का रूप धर
नवजीवन चुनूँ !

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर