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Saturday, June 1, 2019

ग़ज़ल

निराले जग के  परदों में छुपी यह बात सारी है
कहीं पर आग भारी  है कहीं पानी की बारी है

तराशे जाता जो पलछिन , सजाता  है कभी उसको
किसी मिट्टी की मूरत का वही सच्चा पुजारी है

दबे पांवों से आएगी ख़ुशी भी गुनगुनायेगी
तसल्ली खुद को देनी है कि अब मेरी ही बारी है

सितारे हैं तो झोली में सताया पर अंधेरों ने
गगन बांटेगा क्या किस्मत जो लगता खुद भिखारी है

इबादत की थी मीरा ने कबीरा बुन गए चादर
सजाये मंच बैठा जो कथित दावा पुजारी है

खिलाडी खुद को हम समझे लगे दिन रात रहते हैं
मगर कोई न यह माने खुदा असली मदारी है

बिछाकर जाल बैठा जो मचानों पर जमा आसन
दिलेरी उसकी क्या कहिए  बड़ा  शातिर शिकारी है 
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------ वंदना