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Wednesday, March 25, 2015

माँ का आंगन

बड़ी नगरिया मुझे दिखाने लेकर तुम आये बाबा
बड़ा समन्दर ऊँची बिल्डिंग भोजन का बढ़िया ढाबा
हाँ ये माना  इस नगरी में सुख सागर लहराता है
किन्तु गाँव के पोखर जैसा ना यह पास बुलाता है


कभी सताऊं कभी मनाऊं  जा पीछे अँखियाँ मींचूँ
ना मुनिया है ना दिदिया ही  चोटी जिनकी मैं खींचूँ
पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ
भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां


वो माटी घर छप्पर वाला सौंधी खुशबू वाला था
बाट जोहता माँ का आंगन जादू अजब निराला था
बड़ा बहुत यह शहर अजनबी जादूगर झोले जैसा
धरें किनारे बैठ चैन से बतियाएं तो हो कैसा



ताटंक छंद - रचनाकर्म  के लिए ओबीओ परिवार का विशेष आभार 

चित्र गूगल से साभार 


9 comments:

  1. कंक्रीट का शहर गांव जैसा कभी नहीं बन सकता ..दुःख तो यह बहुत होता है की लोगों के दिल भी कंक्रीट जैसे दीखते हैं ...मर्मस्पर्शी

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  2. अतीत में डुबा रही है आपकी यह कविता.

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  3. मन को छूते भाव , वाकई एक सुंदर रचना

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  4. बहुत सुन्दर, सार्थक और भावपूर्ण ... हार्दिक बधाई इस छंदमय प्रस्तुति पर...राम नवमी की शुभकामनाएँ!!

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  5. कभी सताऊं कभी मनाऊं जा पीछे अँखियाँ मींचूँ
    ना मुनिया है ना दिदिया ही चोटी जिनकी मैं खींचूँ

    गांव-घर का अत्यंत सुंदर चित्र उकेरा है आपने।
    छंद की मोहकता को निंदिया, दिदिया, नगरिया ने द्विगुणित कर दिया है।

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  6. पोंछूं चुपके से हाथों को ढूँढूं आँचल की छैयाँ
    भुला न पाऊं इक पल को भी गैया मैया वो ठैयां..
    बहुत ही सुन्दर मन को छूते हुए छंद ... माँ की यादें मन को गुद्गिदाती हैं ... फिर यहाँ तो गैया, मैया और ठैयां .. तीनों ही हैं ...

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  7. बहुत सुन्दर ,मोहक रचना ..हार्दिक बधाई !

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  8. बहुत अच्छा है ,,,
    मै भी कभी स्कूल में लिखा करता था कविता
    अब तो ऑफिस से घर - घर से ऑफिस
    पर वो चीज़े ,,, बहुत ऑफ्सोस होता है
    वाकई में कमाल है
    आज भी वो दिन याद आते है जब हम गॉव में रहते थे

    amdelherbal.com
    पर अब तो सपनो में ही आते है

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर