(1)
छटपटाकर निकली
घूंघट
और
बुर्केनुमा
कोकून से बाहर
अब खुश हैं
हाथों पर दस्ताने
और चेहरे पर
स्कार्फ लपेटे
तितलियाँ
(2)
उन्हें भी
कहाँ सुकून देते हैं
ये तराशे हुए बगीचे
फिर-फिर
बुलाते हैं
बेतरतीब फैले जंगल
जंगल पर खुला आसमान
लेकिन लौटकर दुबक रहीं हैं
चिड़ियाएँ
बाज के पैंतरे देखकर
चित्र गूगल से साभार
सुन्दर क्षणिकाएं.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (22-11-2014) को "अभिलाषा-कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा" (चर्चा मंच 1805) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खूबसूरत एहसास कराती क्षणिकाएं |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अर्थपूर्ण क्षणिकाएं !
ReplyDeleteआईना !
तितलियों से जुड़े कई मासूम अहसास पुनः ताजा हो गये। सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही अर्थपूर्ण हैं दोनों क्षणिकाएं ... गहरा अर्थ लिए ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर , विचारपूर्ण भाव हैं
ReplyDeleteखूबसूरत पंक्तियाँ, अर्थपूर्ण क्षणिकाएं...बधाई
ReplyDeleteवाह....!
ReplyDeleteभावना की सीपी में
शब्दों के मोती
चमक रहे हों, जैसे !
बहुत ही खूबसूरत .....
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