मुस्कुरा किसे देखे बालियाँ समझती हैं
लाज के हैं क्या माने कनखियाँ समझती हैं
रंग की हिफ़ाज़त में क्यूँ न घर रहा जाए
बारिशों की साजिश को तितलियाँ समझती हैं
शूल ये नहीं साहब सिर्फ है सजगता बस
‘ फूल कौन तोड़ेगा डालियाँ समझती हैं '
सिसकियाँ सुने बेबस कटते मूक पेड़ों की
दाम क्या तरक्की का आरियाँ समझती हैं
हौसलों की तक़रीरें सर्द पड़ ही जाएँ जब
खून की रवानी को धमनियाँ समझती हैं
पत्थरों को सहकर भी फल हुलस के बांटेंगी
नन्हें मन की चाहत को बेरियाँ समझती हैं
सुबह इक नयी होगी इक नया सा युग होगा
ओस की प्रतीक्षा को रश्मियाँ समझती हैं
( तरही मिसरा आदरणीय शायर जनाब दानिश अलीगढ़ी साहब की ग़ज़ल से )