जिस्मो जाँ अब अदालती हो क्या
साँस दर साँस पैरवी हो क्या
क्यूँ उदासी का अक्स दिखता है
ये बताओ कि आरसी हो क्या
थरथराते हैं लब जो रह-रहकर
कुछ खरी सी या अनकही हो क्या
रतजगों की कथाएं कहती हो
चांदनी तुम मेरी सखी हो क्या
शाम का रंग क्यूँ ये कहता है
"मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या"
मैं जरा खुल के कोई बात कहूँ
पूछे हर कोई मानिनी हो क्या
माँ से विरसे में ही मिली हो जो
ए नमी आँखों की वही हो क्या
तरही मिसरा आदरणीय शायर जॉन एलिया साहब की ग़ज़ल से
" मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या "