कोई एक फूल मिसाल का भले ज़िन्दगी को दिया न हो
मेरी हरक़दम रही कोशिशें मुझे रहगुज़र से गिला न हो
तेरी आस में यही सोचती मैं तमाम उम्र जली बुझी
कहीं अक्स तेरी निगाह में मेरी फ़िक्र से ही जुदा न हो
नयी सरगमों नए साज़ पर है धनक धनक जो नफ़ीस पल
इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग़ ले के खड़ा न हो
है उरूज़ बस मेरी आरज़ू मेरी गलतियों को सँवार तू
मेरी साँस यूँ भी कफ़स में है नया दर्द अब ऐ खुदा न हो
जरा देख आँखों की बेबसी वो जो थे जवां ढले बेखबर
अरे उम्र के किसी दौर में उसी दर पे तू भी खड़ा न हो
न बगावतें न रफाक़तें ये सियासतों की हैं चौसरें
तो झुका लिया यूँ शज़र ने सिर कहीं आँधियों को गिला न हो
ढले शाम जब भी हो आरती दिपे तुलसी छाँव में इक दिया
करें तबसरा भी मकीनों में कोई फ़ासला तो बढ़ा न हो
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“इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग़ ले के खड़ा न हो” तरही मिसरा इस दौर के अजीमतरीन शायर जनाब बशीर बद्र साहब की एक
ग़ज़ल से लिया गया है.
(रहगुज़र = रास्ते जिनसे हम गुजरते हैं ; उरूज़=उत्थान; कफ़स= क़ैद; रफाक़तें= साहचर्य /दोस्ती ; तबसरा=प्रेक्षण
/ध्यानपूर्वक देखना; मकीन =घर में रहने वाले )