उफ़क पे हो न सही फ़ाख्ता उड़ाने से
हुनर की पैठ बने पंख आजमाने से
चलो समेट चलें बांधकर उन्हें दामन
मिले जो फूल तिलस्मी हमें ज़माने से
रही उदास नदी थम के कोर आँखों की
पलेंगे सीप में मोती इसी बहाने से
निकल न जाए कहीं ये पतंग इक मौका
अगर गया तो रही डोर हाथ आने से
बुझे अलाव हैं सपने मगर अहद अपना
मिली हवा तो रुकेंगे न मुस्कुराने से
शफ़क मिली है वसीयत जलेंगे बन जुगनू
इक आफ़ताब के बेवक्त डूब जाने से
अभी तो आये पलट कर तमाम खुश मौसम
बँटेंगे खास बताशे छुपे ख़ज़ाने से
(उफ़क = क्षितिज, सही = हस्ताक्षर )
(शफ़क = सूर्योदय या सूर्यास्त की लाली )
तरही मिसरा मशहूर शायर जनाब इकबाल अशर साहब की ग़ज़ल से
तरही मिसरा मशहूर शायर जनाब इकबाल अशर साहब की ग़ज़ल से