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Friday, September 6, 2013

अब चाँद दिखाये न बने

नूर ऐसा कि ये जज्बात छिपाये न बने
आग उल्फ़त की है दामन को बचाये न बने

इस कदर भींत उठी गर्व की रफ्ता रफ्ता 
अब तो ये हाल कि दीवार गिराये न बने

फेरकर बैठ गए पीठ ख़ुशी रूठ गयी
क्या बने बात जहाँ बात बनाये न बने

तोड़ डाले हैं अगर बाँध नदी ने दुःख में
प्रश्न फिर उसकी बगावत पे उठाये न बने

आज इस दौर में जज्बात कहाँ ढूंढें हम 
इश्तिहारों से पता लाख लगाये न बने

खो गए शख्स कई उम्र बिता यूँ कहकर
बेरुखी सिर तो नई नस्ल की चढ़ाये न बने

तिफ़्ल समझो न खुदाया कि उड़ाने हैं गज़ब
सिर्फ पानी में ही अब चाँद दिखाये न बने                                            

राख के ढेर छुपी हो कोई चिंगारी भी
उफ़ हवा दे न सके और बुझाये न बने

देहरी आज नया दीप जलाकर रख दो
काँपती लौ के चिरागों को जलाए न बने

 


( तिफ़्ल =बच्चा )
("क्या बने बात जहाँ बात बनाये न बने" तरही मिसरा-मिर्ज़ा ग़ालिब साहब की ग़ज़ल से )


17 comments:

  1. उम्दा गजल
    खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  2. क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने......
    वाह वाह...

    बहुत बढ़िया ग़ज़ल....

    अनु

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  3. वाह ...हर बात वज़नदार ढंग से कही

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  4. वाह लाजवाब गजल..

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  5. बहुत तारीफ़ करने को दिल चाहे पर
    शब्दों से उतनी तारीफ़ कराये न बने..

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  6. खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  7. भई वाह ...
    आनंद आया , गज़ब की रचना !!
    बधाई !

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  8. बहुत सुंदर गज़ल

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  9. बहुत ही लाजवाब रही ये तरही गज़ल ...
    हर शेर उम्दा है ...

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  10. बहुत खुबसूरत ग़ज़ल....

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  11. बहुत खूबसूरत गज़ल...

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  12. waah bhai lajavaab prastuti .....kalam ki takat hi kuchh aisee hoti hai ...

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  13. बेहतरीन ग़ज़ल..ढेर सारी बधाईयों ..सादर

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  14. बेहतरीन ग़ज़ल..ढेर सारी बधाईयों ..सादर

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर