समाज में हमेशा से ही शिक्षक स्थिति का आकलन उस दीपक से तुलना कर किया गया है जिसे अपने ज्ञान की रोशनी से समाज को दिशा ज्ञान देना है .आज सामाजिक वैषम्य की स्थिति के चलते शिक्षक के दायित्व पर पुनर्विचार करना आवश्यक है .व्यवसायीकरण के दौर में शिक्षण जैसे पुनीत कार्य पर भी व्यावसायिक पैंतरे हावी होने लगे हैं. कुकुरमुत्तों की तरह गली गली में उग रही शिक्षण संस्थाएं इस बात को प्रमाणित कर रही हैं ऐसा नहीं है कि सभी शिक्षण संस्थाएं अपने दायित्व को दरकिनार रख कोरा व्यवसाय कर रहीं हैं बल्कि कई संस्थाएं इस पुनीत यज्ञ में आशानुरूप सहयोग कर रहीं हैं
कोई भी संस्था व्यक्ति से प्रारम्भ होती है और शिक्षण संस्था की इकाई है शिक्षक .इस व्यवसायीकरण के दौर में शिक्षक को अपना दायित्व निभाने के लिए और अधिक मेहनत करनी पड़ेगी .सामाजिक प्रदूषण के इस दौर में नन्हे बालकों को हथेलियों के बीच किसी पुष्प जैसी सुरक्षा की आवश्यकता है
कक्षाएं पास कर बेरोजगारों की भीड़ में खड़े हो जाने वाले बच्चे स्वयं कुंठित रहेंगे तो निश्चय ही समाज में कुंठा का रोग निरंतर फैलता रहेगा .इस संक्रामक रोग को फैलने से रोकना शिक्षक का दायित्व है .समाज में फ़ैल रही हिंसा कुंठा का ही दूसरा रूप है .
प्रत्येक व्यक्ति जो इस समाज की इकाई है आगे चलकर परिवार और समाज का निर्माण करेगा .उसे जिंदगी के प्रति विश्वास और आस्था की आवश्यकता है .शिक्षक को उसकी लुप्त हो रही जिजीविषा को पुनर्जाग्रत करना है और जीवन संघर्ष के लिए प्रेरित करना है श्री कृष्ण की भांति "न दैन्यं न पलायनम्" का पाठ पढाना है .
मूलतः शिक्षण एक त्रिविमीय प्रक्रिया है और लक्ष्य तक पहुँचने के लिए परिवार और वातावरण की भूमिका भी शिक्षक के समान ही महत्वपूर्ण है .परिवार और वातावरण से भी बालक सीखता है अतः निर्धारित पाठ्यक्रमों को पूरा कर यदि बालक फिर से वही प्रश्न ले कर खड़ा हो जाता है कि "अब मैं क्या करूँ...." तो निश्चय ही शिक्षण प्रक्रिया दोषपूर्ण है यदि विवेक जाग्रत करने में शिक्षा असमर्थ है तो उसे शिक्षा कहा ही नहीं जाएगा .
शिक्षण की सम्पूर्णता तभी कही जायेगी जब बालक आने वाली परिस्थिति के सम्मुख सीना तान कर खड़ा होगा और विषम परिस्थितियों से संघर्ष का हौसला रख सकेगा .
आज की परिस्थितियों में हमे बालक को श्री राम और महात्मा गाँधी के रूप में तैयार करना है उन्हें बताना है कि इन महापुरुषों के पास न साधन थे न ही सहारा देने के लिए लंबे चौड़े परिवार फिर भी उनके व्यक्तित्व की रेखाएं समय की चट्टान पर अमिट हैं .
उपभोक्ता संस्कृति की चकाचौध से अलग ऐसे शिष्य तैयार करने हैं जो विवेकशील नाविक की भांति भंवरों और तूफानों में भी नाव को आगे बढ़ा ले जाएँ .यह केवल शिक्षक और शिष्य के आपसी विश्वास से ही संभव हो सकेगा . ऐसे में किसी कवि की पंक्तियाँ याद आती हैं .....
" मैं तुमको विश्वास दूँ तुम मुझको विश्वास दो
शंकाओं के सागर हम लंघ जायेंगे"
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