Pages

Thursday, March 31, 2011

बूँद

पलकों से गिरी खारी थी
समंदर नहीं कहलाई
बहने तो निकली चली भी
पर नदिया ना कहलाई
रुकी ढूँढाहो सीप कहीं
पर मोती ना बन पायी
सिमटी रही निपट अकेली
न किसी की प्यास बुझाई
मिला अभ्र का टुकड़ा कहीं
अब किसी की आस कहलाई
मिटा अस्तित्व अपना चली
बरसी तो खुशी मनाई
खोई जो जीवन मेले में
चहुँ ओर धरा हरियाई

No comments:

Post a Comment

आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर