स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Thursday, March 31, 2011
बूँद
Sunday, March 27, 2011
हम रहेंगे ....
मेरे पास भी हैं
अंजुरी भर सपने
सपने नितांत मेरे अपने
जिन्हें चाहिए आकाश
पंख पसारने के लिए
अंतहीन गगन नहीं
बस बाँहों भर आकाश
हम बनें ओस
या फिर
समंदर
अपरिभाषित प्यास तो
होठों पर
फिर भी रहेगी
शत सहस्रों बार सुनी
अनकही कहानी
जिजीविषा
मौन रहकर भी कहेगी
एक बूँद ज्योत्सना
बस एक क्षण
पीड़ा की गली में
सदी दर सदी
और
उल्कापात सा जीवन
बस एक क्षण
क्या जरूरी है कि
चमकें क्षितिज पर
उल्कापात सी
किसी लकीर की तरह
कालजयी अभिमान की
प्राचीर की तरह
हम बनें एक सीढ़ी
किसी एक के लिए
हो संभव
तो अनेक के लिए
हम रहेंगें हमेशा रहेंगे
किसी सफलता की कथा में
या किसी असफल प्रयास की व्यथा में
वर्तमान और इतिहास में
संघर्ष के उत्तराधिकार में
शिराओं में रक्त बनकर बहेंगे
हम रहेंगे..... हमेशा रहेंगे !
Monday, March 21, 2011
शुचि
आज फिर माँ और सुधा आपस में उलझे हुए थे . सुधा मेरी पत्नी है जिसे माँ अपनी पसंद से बहू बनाकर लायी थी .सब कुछ ठोक-बजाकर देखा था माँ ने पर अब हर काम में कोई न कोई कमी नजर आती है . ज्यादा टोकाटाकी करती तो दोनों का वाक्-युद्ध शुरू हो जाता
मुद्दे गंभीर नहीं होते पर उन्हें गंभीर बना दिया जाता जैसे पोछा गीले कपडे से लगे या सूखे से परांठे गोल बनेंगे या तिकोने .......आज भी कुछ ऐसा ही हुआ था .
मैंने हमेशा चुप्पी की ढाल से अपने आपको इन झगडों से बचाया है .इसीलिये अखबार लेकर चुपचाप बालकनी में आ बैठा .
लॉन में नजर गयी तो देखा गुलदाउदी की एक टहनी फूलों के भार से झुकी अपने पास के एक नन्हें से पौधे पर लगे इकलौते फूल को सहला रही थी .दूसरी ओर सड़क पर शुचि एक छोटे से बच्चे को न जाने क्या समझा रही थी .अद्भुत साम्यता है ....!!
बचपन से जानता हूँ शुचि को !
सिर्फ जानपहचान .......! नहीं उससे कहीं बहुत ज्यादा नजदीकी है हमारे परिवारों में .
हमेशा देखा मैंने कि दोपहर माँओं की सांझी थी और शामे पिताओं की शतरंज खेलते बीतती .और हम बच्चे....मिठाई खिलौनों किताबों के बराबर हिस्सेदार .
मुझे शुचि को सताने में बड़ा मजा आता था ...कभी चोटी खींच दी तो कभी चलते ही धौल जमा दी .......पर कभी शुचि की आँखों में शिकायत नहीं देखी .उस दिन भी नहीं जब मेरे हाथों उसकी प्यारी गुडिया टूट गयी थी .खट्टी मीठी शरारतों के साथ बचपन पंख फैलाये उड़ रहा था .
शुचि की आँखे बहुत खूबसूरत हैं और भावपूर्ण भी. जिन्हें पढ़ना मैंने छुटपन में ही सीख लिया था .
समय गुजरता गया और पढाई का जोर बढ़ने लगा . शुचि और मेरे खेल पीछे छूटने लगे वैसे भी बाहर की तरफ दायरा बढ़ रहा था .
शुचि प्राय: माँ के पास आती रहती थी कभी अपनी बनाई चीजें दिखाने तो कभी माँ से नया कुछ सीखने.
.....”हलवा बड़ा अच्छा बना है”...पापा कहते . “शुचि ने बनाया है कहते हुए माँ की आँखों में वही गर्व दिखाई देता जो एक माँ अपनी बेटी को कुछ सिखाकर उसकी सफलता से गौरवान्वित अनुभव करती .
उस दिन शुचि अपने बनाए दही-बड़े देने आई थी .घर पर कोई नहीं था .
माँ घर नहीं हैं ...मेरे कहने पर शुचि ने बर्तन मेरी ओर बढ़ा दिए थे .बर्तन पकडाते समय उसके हाथ लरज कर रह गए.
मेरा ध्यान उसकी आँखों की ओर गया और फिर उन सरस स्निग्ध आँखों के सम्मोहन मैं कभी नहीं भुला पाया आज भी नहीं ....जाने वो आँखे मेरा पीछा करती थी या मेरे कान उसकी आहट सुनने को उत्सुक रहते कहना मुश्किल है .
शुचि का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था .शायद कॉलेज फंक्शन में जा रही थी .मैं अपनी परीक्षा की तैयारी के लिए घर पर ही था .वो तैयार होकर माँ के पास आई थी . उसने लाल बोर्डर की सुनहरी पीली साडी पहनी थी .ढीली बंधी चोटी पर सफ़ेद वेणी उसके बालों से ज्यादा मेरे मन को महका गयी थी .मैं अपलक उसे देखता रह गया था .
शुचि ने भी अपनी बड़ी बड़ी पलकों की ओट से मेरी ओर देखा और शायद मेरी दृष्टि में छुपी प्रशंसा को पढ़ भी लिया था .उसका शर्माना मुस्कराना मेरे दिल की धडकनें बढ़ा देता और सामना हो जाने पर तो जैसे हम दोनों की सासे ही थम जातीं .एक दूसरे के दर्द जरूरत में हम दोंनो चुपचाप लेकिन दिल की गहराईयों से शामिल होते .
बचपन से पनप रहे प्रेमांकुर को हमने एकदूसरे की आँखों में पहचान लिया था .
मेरा एम.बी. बी. एस पूरा होने वाला था मैंने मन ही मन शुचि से विवाह करने का निश्चय कर लिया था. जैसे ही मैंने अपने मन की बात मैंने माँ को बतायी वो बिफर गयी . उन्होंने शुचि को अपने सामने बड़ा होते देखा था अपने हाथों से उसका व्यक्तित्व संवारने में योगदान दिया था फिर भी .....
मैं माँ को मनाने की कोशिश ही करता रह गया कि एक दिन शुचि अपनी माँ के साथ अपनी शादी का कार्ड देने आई .अपनी माँ के चेहरे का संतोष तो मैंने देखा पर शुचि की ओर देखने का साहस मुझमे नहीं था .जानता था बचपन की ही तरह उसकी आँखों में कोई शिकायत तो नहीं होगी पर उन निर्दोष आँखों का सामना मैं नहीं कर सकूंगा .
इधर शुचि विदा हुई उधर माँ ने सुधा से मेरा विवाह तय कर दिया .
कुछ समय बाद पता चला शुचि अपनी ससुराल में सुखी नहीं है .वहाँ उसकी नहीं बल्कि उसके माँ बाप के पैसों की जरूरत है .
शुचि ने यहाँ लौट आने का फैसला कर लिया है ....शुचि की माँ मेरी माँ को बता रही थीं .”वो यहाँ उसी स्कूल में पढ़ा लेगी जिसमें वह खुद पढ़ती थी ....”
कुछ दिनों बाद शुचि मिली .सरस आंकें भावहीन हो चुकी थी और मैं अपनेआपको अपराधी अनुभव कर रहा था .
सुधा मेरी पत्नी है और मुझे उससे कोई शिकायत नहीं .....और शुचि !वो तो अपने नाम के अनुरूप एक पवित्र भावना की तरह मेरे दिल की गहराइयों में बसी है .एक अनाम मूक रिश्ता है मेरा उससे !
मेरी विचार-तन्द्रा को माँ की पास आती आवाज ने भंग किया ......”मेरे तरीके से तो कोई काम करना पसंद ही नहीं ......और उस पर जुबान कैंची की तरह ......”
जिसे तुमने अपने तरीके सिखाये थे माँ काश उसे बहू के रूप में स्वीकार कर लिया होता .... जुबान के मामले में तो ईश्वर ने ही उसके साथ अन्याय किया था ..... यही वजह थी न माँ कि तुम शुचि को नहीं अपना सकीं ......
गूंगी लड़की से ब्याह करेगा ..दिमाग तो नहीं फिर गया ...लोग क्या कहेंगे ? यही कहा था तुमने ..... मैं कहना चाह कर भी नहीं कह पाया जानता था माँ भी पश्चाताप की आग में सुलग रही है .
“छोडो माँ छोटी छोटी बातें किस घर में नहीं होती .” कहते हुए मैं अखबार समेट कर उठ खड़ा हुआ . माँ शुचि को तब तक देखती रहेगी जब तक वो भीतर न चली जाएगी .