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Sunday, September 26, 2010

ग़ज़ल(दर्द का ज़हर)

दर्द का ज़हर पिया नहीं जिया मैंने
दिल के हर ज़ख्म पर पैबंद सिया मैंने

शिकायत मुकद्दर से नहीं है मुझको
मेरी इबादत को बदनाम किया तूने

लगते हैं झूठे चांदनी के किस्से
समझौता अमावस से कर लिया मैंने

आएगा भला कौन गवाही देने
सारा ज़माना मुंसिफ बना दिया तूने

सन्नाटों के शोर सभी खामोश हो गए
जब से हवा पर पहरा बिठा दिया तूने

क्यों भागते रहे जुगनुओं के पीछे
दीप खुद बनने का फैसला किया मैंने

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर