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Sunday, September 26, 2010

ग़ज़ल(दर्द का ज़हर)

दर्द का ज़हर पिया नहीं जिया मैंने
दिल के हर ज़ख्म पर पैबंद सिया मैंने

शिकायत मुकद्दर से नहीं है मुझको
मेरी इबादत को बदनाम किया तूने

लगते हैं झूठे चांदनी के किस्से
समझौता अमावस से कर लिया मैंने

आएगा भला कौन गवाही देने
सारा ज़माना मुंसिफ बना दिया तूने

सन्नाटों के शोर सभी खामोश हो गए
जब से हवा पर पहरा बिठा दिया तूने

क्यों भागते रहे जुगनुओं के पीछे
दीप खुद बनने का फैसला किया मैंने

Thursday, September 23, 2010

भागीरथी बनाम अलकनंदा

अपने विहंगम पंख फैलाये तेजी से जीवन संध्या की ओर बढ़ते लोगों ने तीर्थ स्थलों के भ्रमण की योजना बनाई । इसी क्रम में देवप्रयाग पहुंचे तो एक गाइड आदतन अपनी रौ में बोले जा रहा था ....
"यहाँ भागीरथी और अलकनंदा का संगम है । यहीं से गंगा प्रारंभ होती है । ये दोनों नदियाँ यहाँ क्रमश : सास बहू के नाम से जानी जाती हैं । अब टिहरी बाँध बन जाने के कारण भागीरथी का प्रवाह कुछ कम हो गया है ...."
"हाँ भाई आजकल तो बहुएँ ही उछलकूद मचाती हैं सास तो ....."एक वय-प्राप्त व्यक्ति ने जुमला उछाला । "
"नहीं भाई साहब यह तो भागीरथी ने जनहित गंभीरता धारण कर ली है । इससे न तो भागीरथी उपेक्षित हुई है और न अलकनंदा की चंचलता लांछित । अब गंगा के अस्तित्व को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी अलकनंदा को निभानी है ।" यह एक समझदार ,गंभीर सास का तर्क था ।

Monday, September 20, 2010

आरक्षण

मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने पर आरक्षण नीति के विरुद्ध विनीत बाबू ने बड़ी जोरदार आवाज़ उठाई थी ।

अपने लच्छेदार भाषणों के बूते पर वे रातोंरात नेता बन गए । क्या विभाग क्या जनपदीय राजनीतिमें उनकी अच्छी साख बन गयी थी । आरक्षण सम्बन्धी हर बहस में वे योग्यता को आधार बनाये जाने की सिफारिश करते ।
आरक्षित वर्ग के किसी भी कर्मचारी को देख उनके अन्दर बैचैनी शुरू हो जाती ।
आठवीं बोर्ड में उनके बेटे को नक़ल में सहयोग न देने वाले अध्यापक का तबादला सुदूर गाँव में करवा दिया था । संयोग कहिये या दुर्योग वही अध्यापक महोदय कुछ साल बाद फिर टकरा गए । इस बार पी एस सी द्वारा आयोजित परीक्षा में वे वीक्षक थे । विनीत बाबू ने जोड़ तोड़ बैठाकरअध्यापक महोदय को परीक्षा से बाहर करवा दिया ।

....और .... विनीत बाबू के सुपुत्र को योग्यता के आधार पर नौकरी मिल गयी थी ।

Thursday, September 2, 2010

ढलानों पर ...

बहू के लापरवाही भरे व्यवहार से आहत सरदार बचन सिंह बस की खिड़की से बाहर झाँक रहे थे । कहाँ जाएँ ... कहाँ रहें .... सोच का तूफ़ान चल रहा था । "सरदार जी ! यह सीट स्वतंत्रता सेनानियों के लिए रिजर्व है ....." कंडक्टर ने कहा ।
"ओ कोई नी मैं आपे ही उठ जावांगा ।" जवाब देते सरदार जी के स्वर में झल्लाहट उतर गयी थी । बस चलने से पहले एक वयो -वृद्ध किन्तु उत्साह से पूर्ण व्यक्तित्व सरदार जी के पास आ विराजे थे । सरदार जी मन की उहापोह में पड़े थे कि एक तेज आवाज से विचारधारा भंग हो गयी ।

"माई मेरी भी नौकरी है आखिर मैं कहाँ से दूंगा ?"

"बेटा मेरे पास तो यही एक नोट है और मेरा जाना भी जरूरी है ।" वृद्धा गिडगिडाते हुए बोली ।

"वो मुझे नहीं पता । तुम यहीं उतर जाओ । रोजाना एक दो नमूने मिल ही जाते हैं ।" कंडक्टर ने पान की पीक थूकते हुए सीटी बजा दी ।

वृद्धा की आँखों में आंसू आ गए थे और वह हाथ जोड़े रुंधे गले से विनती कर रही थी । तभी सरदार जी की बगल से बुजुर्गवार उठे और बोले ," लाओ ये नोट मुझे दो !"

कंडक्टर ने बस दुबारा चलवाने के लिए सीटी बजाते हुए नोट उनकी ओर बढ़ा दिया । उन्होंने नोट बदल कर वृद्धा की तरफ बढ़ाया और कहा " आगे ज़रुरत पड़ सकती है । " फिर कंडक्टर की तरफ मुखातिब होकर कहा ...." इनके टिकट की एंट्री मेरे पास पर कर दो ।"

"लेकिन .....!"

"भाई मेरे स्वतंत्रता सेनानी पास पर दो व्यक्ति यात्रा कर सकते हैं तो एक एंट्री और कर दो ।" दृढ़ता से बुजुर्गवार ने कहा । उनकी उदारता से सरदार बचन सिंह प्रभावित हो गए थे ।

बोले ,"बाउजी आज के जमाने में चाहे भी तो किसी की मदद करने से पहले सोचना पड़ता है । अपनी औलाद पर ही भरोसा करना मुश्किल होता जा रहा है । किसी जरूरतमंद का पता लगना ही मुश्किल है । "

"बात तो आपकी ठीक है कि धोखा-धडी बढ़ रही है लेकिन हम अपनी भावधारा को सूखते देखते रहें और पान सिगरेट पर रोज खर्च होने वाली रकम जितनी मदद भी न कर पायें ....सोच के इन संकुचित दायरों से बाहर निकलना ही होगा । "
सरदार जी दृष्टि बाहर गयी जहाँ पहाड़ी ढलानों पर कुछ पेड़ मजबूती से सीधे खड़े मुस्करा रहे थे और कुछ नन्हे पौधे भी उन जैसा बनने की प्रेरणा ले रहे थे।