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Friday, July 2, 2010

ग़ज़ल(अच्छे वक़्त में )

अच्छे वक़्त में कुछ देर चाँदनी बिखर जाती है
बुरे वक़्त से तो सभी की सीरत संवर जाती है

वो जो अकेला है वही रूहानियत के करीब है
भरी भीड़ में शख्सियत टुकड़ों में बिखर जाती है

ढूंढता फिरता है खुद को कहाँ दुनिया ये शीश महल
चारों तरफ हैं आईने जिस ओर नज़र जाती है

ज़िन्दगी तेरी या मेरी पानी पे लिखी कहानी
नई मौजों में कब परछाई ठहर पाती है

ये दुनिया का मेला बच्चों सी तबियत अपनी
न पूछो कि ऊँगली कब किस ओर मचल जाती है

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर