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Wednesday, June 30, 2010

जीवन सुरों के आरोह-अवरोह


प्रतिकूल परिस्थितियों में सहज भाव से जीते हुए जीवन के अनमोल पल बिताए हैं तुमने । एक सतत प्रवाहमयी वारिधारा की तरह । पता नहीं जीवन को तुमने जिया या जीवन ने तुम्हे !
अभाव को भी सद्भाव से जीते हुए समय वृक्ष के पत्तों को सहेज कर पूंजी जमा करती रही । वे अनमोल रत्न जो तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुए , आज तुम्हारे ही हाथों तराशे जाने के बाद विश्व के अलग अलग हिस्सों अपनी पहचान बनाए हुए हैं । वे अमूल्य हैं और तुमसे थोडा दूर । भावना का फूल अब भी ताज़ा खुशबू से तर- बतर हैं । माँ !..... तुम्हारे लिए उनका यह संबोधन किसी भी सहृदय को द्रवित कर देने के लिए काफी है । क्यूँ न हो ! तुम्हारी करूणाका उपहार आखिर उन्हें भी तो मिला है ।
कुछ सालों से तुम्हारे ऊपर अवस्था का प्रभाव दिखने लगा है । लोग कहते हैं तुम, भूलने लगी हो। मैंने भी महसूस किया है । चीजें इधर - उधर रखकर भूल जाती हो फिर उन्हें ढूंढ़ती रहती हो । उस दिन नहाने जाना था तो न जाने कपडे कहाँ रख दिए ? सबको ढूंढने में आधा घंटा लगा । पता नहीं अकेले कैसे ढूंढ़ती होगी ! मौसी बता रही थी कि कई बार खाना बना कर अलमारी में रख देती हो और फिर दुबारा बनाने लगती हो । अब कोई बताने वाला भी तो नहीं कि खाना तो तुम बना चुकी हो । सत्तर बरस की अवस्था में जब लोग पलंग पर बैठ कर सेवा करवाते हैं ,तुम आज भी अपने हाथों से खाना बनाती हो । भला नौकरों के हाथों में परिवार का स्नेह रस कहाँ..... यही कहती हो । पर तुम्हारी भूल जाने की आदत से डर भी तो लगता है ..... यदि कभी गैस बंद करना भूल गयी तो ......?
वो तो बाऊजी हर कदम पर तुम्हारे साथ हैं । हर कदम पर ..... । तुम्हें ही अपने पुराने दिनों को याद करते सुना है कि किस तरह बाऊजी ओवरटाइम करके अपने भाई बहनों सहित पूरे परिवार का खर्च चलाते थे। हर ज़रूरी कम को उन्होंने सच्चे साधक की तरह पूर्ण किया है । परिवार के हर सदस्य को निवाला मिले ,इसलिए कण कण बाँट कर देने के बाद ही कुछ ग्रहण किया । आज तक सुबह की चाय खुद बनाते हैं । सैर पर जाना अखबार पढना और हर काम नियम पूर्वक समयबद्ध निपटाना । रात को सोने तक के सभी इंतज़ाम खुद देखना ।
उस दिन तुम्हें रुई की जैकेट पहनाते देखना रोमांचित कर गया था । धन्य है तुम्हारा दांपत्य ! आज तुम्हारी भूल जाने की आदत को भी संयम पूर्वक निभा रहे हैं । वर्तमान दौर में एक -दूसरे के प्रति शिकायतों का पुलिंदा खोले दम्पतियों के जीवन में वह मिठास कहाँ मिले , जो एक दूसरे के प्रति समर्पण रखना चाहते ही नहीं हैं । अपेक्षाएं बस अपेक्षाएं .......ऐसे में अगर एक को भूल जाने की आदत हो तो.......!
दिन भर बीसियों चीजें तुम रख कर भूल जाती हो । ऐन ज़रूरत की चीजें भी । पड़ोस की मामी बता रही थी कि अब तो तुम्हे खाना खाना भी याद नहीं रहता एक दिन फुर्सत मिलते ही तुमसे मिलने चली आई ।
वो एक दिन तुम्हारे साथ .......
सुबह जब चाचा के साथ मैं पहुंची तो तुम बच्चों सी किलक उठी थीं । तुरंत फ्रिज से फल निकाल कर ले आई । मैं रसोई में चाय बनाने लगी तो तुम डिब्बों से टटोल कर बिस्कुट नमकीन मिठाई प्लेटों में सजाने लगी । बार बार चाचा से आग्रह करती रहीं कि वे खाना खा कर ही जाएँ । दोपहर खाने में भी न जाने क्या क्या बना लिया था ।
तीसरा पहर तुम्हारे पास आने जाने वालों की रौनक देख शहरों के उन वृद्धजनों की याद आ गयी जो बंगलों के गैरज पोर्शन में अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं प्रतिदिन प्रतिपल । अविश्वास से भरी सीली हवाओं के बीच घुटते रहना उनकी मजबूरी बन गयी है । किसी से बात करने की इजाजत जो नहीं है । भागती- दौड़ती ज़िन्दगी से अनुबंधित लोग खुद अपने लिए बूँद-बूँद तनाव एकत्र कर रहे हैं । भला माँ-बाप के लिए स्नेह कहाँ से लायेंगे । इधर तुम अपने अतिथियों को स्नेह कलश से नहला देना चाहती थी ।
कुछ ही देर में न जाने कहाँ से छोटे -छोटे कई बच्चे दादी नमस्ते -दादी नमस्ते ....... कहते हुए अन्दर चले आये और तुम प्रसन्न -मना एक -एक हाथ पर मिठाई रख रही थी । कितना अच्छा लग रहा था उन पुलकित चेहरों की ख़ुशी देखना !
बहुत सुन्दर अनुभव था संध्या समय तुम्हें परिवार की मंगलकामना के लिए दीपक जलाते देखना ...... । तुम्हारा झुर्रियों से भरा चेहरा आत्मसंतुष्टि की दीप्ति लिए हुए था । पता नहीं दीपक अधिक प्रदीप्त था या तुम्हारा चेहरा !
अनुपम है तुम्हारा अतिथि-सत्कार । अनोखी है तुम्हारी करूणा । अतुल्य है तुम्हारा वात्सल्य और बहुमूल्य हैं वे जीवन मूल्य जिन्हें तुम आज भी आँचल से बांधे हुए हो ।
तुम कुछ नहीं भूली नानी -माँ ! भूले तो हम हैं जीवन सुरों के आरोह -अवरोह का आनंद । सुर से भटकी बेसुरी ज़िन्दगी जीते हुए ।

2 comments:

  1. "अत्यंत सम्वेदनशील पोस्ट...सशक्त लेखन..."

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  2. बहुत सुन्दर आलेख!

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आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर