Saturday, July 27, 2013

पतंगें थाम कर इठला रहा हूँ

हकीकत है कि जो मुस्का रहा हूँ
रफू कर जख्म को सिलता रहा हूँ

हताहत हो के रह जा श्राप मुझको
कि सर दीवार से टकरा रहा हूँ

सभी शामिल रहे उस कारवां में
बिकाऊ भीड़ का हिस्सा रहा हूँ

दबे पांवों चला यादों का मेला
कुसुम राहों में खुद बिखरा रहा हूँ

लगा चुकने न हो अब नेह साथी
नमी आँखों की फिर सहला रहा हूँ

गुलाबों चाँद में दिखता है हर सू
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ

हवाओं पर लगे पहरे भले हों
पतंगें थाम कर इठला रहा हूँ


16 comments:

  1. राहों में खुद ही कुसुम बिखराना ...वाह!

    ReplyDelete
  2. बहुत खुबसूरत रचना..

    ReplyDelete
  3. बहुत खुबसूरत रचना..

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर गजल

    ReplyDelete
  5. बहुत बढ़िया गज़ल हुई है.
    बढिया मतला है.. बिकाऊ भीड़ का हिस्सा.., नमी आँखों की फिर सहला रहा हूँ.. जबदस्त मिसरे.

    बधाई.

    ReplyDelete
  6. बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....

    ReplyDelete
  7. सुख की हवा बंद हो तब भी सामाजिक दायित्व की पतंगों को लहराना पडता है । प्यारी गज़ला ।

    ReplyDelete
  8. स्तरीय और प्रभावशाली ..
    बधाई !

    ReplyDelete
  9. बहुत खूब ... अच्छे शेर बन रहें हैं अब आपके ... बहुत ही लाजवाब भाव ...

    ReplyDelete
  10. आपके शेरो से दिल बहला रहा हूँ ,अति सुन्दर

    ReplyDelete

आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ कि अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा मान बढाया ...सादर

Followers

कॉपी राईट

इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी रचनाएं स्वरचित हैं तथा प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं यथा राजस्थान पत्रिका ,मधुमती , दैनिक जागरण आदि व इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं . सर्वाधिकार लेखिकाधीन सुरक्षित हैं