ज्ञान
दर्पण तो नहीं
वरना दिखा देता
चेहरा
होता गर शीशमहल
तो
रच देता अनेक
प्रतिबिंब
स्वत्व के ....
स्वत्व जिसे
अभिमान है
रूप का
गर्व है
पांडित्य का
नशा अर्थसत्ता
का
इन्हीं क्षुद्र
कंकरों से
चुनी जाती है दीवार
जिसे ज्ञान
कहते हैं
अनमोल पत्थर
नहीं
फिर भी सहेजते
हैं एक पर एक
बनाते हैं
दीवार
दीवार...
जो हमेशा
आक्रामक होती है
वेदना देती है
फिर भी मनाते
हैं उत्सव
स्पन्दनहीन
दीवारों में कैद होने का
उत्सव टूटे
फूलों की गंध का
महोत्सव प्रकाश
का
नहीं
जानते कि
दीपशिखा भी हाथ
जला देती है
और गोद में अँधेरे पालती है