नींदें
जब
बही-खाते खोल
कर
बैठ जाएँ
तो न जाने
कौन
कौन से हिसाब
उलझ जाते हैं
कहीं
बदगुमानियों के
कहीं आइनों पर
आत्ममुग्ध अजगरों के
सूरज
जैसे
बारिश के बाद
मुंह धो कर लौट
आना चाहता है
और गर्द
फिर से उसे
छूकर
मैला कर देती है
मन का कोई
ज्वार
इन बहियों को
बहा कर
ले जा
पाता नहीं
उतरते ज्वार के बाद भी
बचे रह जाते हैं
अनगिन हिसाब
आकर्षक शंख सीपियाँ
नहीं
मोती भी नहीं
रह जाते हैं बस
रेत पर कुछ
निशान
कुछ गहरे कुछ
हलके
संशय के
अवचेतना के
अवचेतना के
क्या विचारों के उस छोर
है कहीं कोई द्वार
है कहीं कोई द्वार
आस्था का
चेतना या विश्वास का
क्या द्वार के
पार
बहती होगी कोई
नदी
पत्थरों को
शिवाकार बनाती
हुई
तो चलो ...
चित्र गूगल से साभार