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Saturday, November 26, 2011

पगली


पगली
बहुत हँसती है
वो
न जाने क्यों
शायद बेवजह
बेवजह ?
पागल है क्या
क्या पता !
और क्या
बिना कारण तो
पागल ही हँसते हैं
वो सुनकर भी हँस रही थी
मानो कह रही थी
दर्द छुपाना भी
एक वजह है
हँसने के लिए
मन के सितार को
घंटो साधा जाता है
हँसने के लिए
लिखी जाती है
नई कविता
स्मित रेखाओं से
भरे जाते हैं
अनुभूति के रंग
पलकों की कूँची से
नम आँखे लिए
पगली सोच रही थी
वो अब भी हँस रही थी .......

Sunday, November 20, 2011

मन की विकलांगता


पुष्प

जीते हैं उल्लास से

अपनी क्षणभंगुरता को

नहीं जानते जीना है कितना

फिर भी बांटते हैं

रंग की उमंग को

गंध के गौरव को

क्यूँ नहीं जी पाते

हम भी

यूँ ही

क्षणजीवी होने का बोध

बटोरते हैं आवश्यक अनावश्यक सामान

शायद जानते ही नहीं

अपने रंग को

पहचानते ही नहीं

स्वयं की गंध को

जुटाते हैं मंगल उत्सवों पर

परिचितों की

अपरिचित सी भीड़

पोषित करते अपने दंभ को

ढूंढते हैं निरंतर बैसाखियाँ

किन्तु निस्सहाय ही रहती है

सम्पूर्ण जीवन

मन की विकलांगता........

Monday, November 7, 2011

बिटिया



तू आई गोदी में बिटिया

जीवन मेरा मुस्काया

भूला रस्ता आज चाँद ज्यूँ

मेरे आँचल में आया


मृगतृष्णा से व्याकुल मनवा

कैसे इत उत भटक रहा था

चिंता चिंतन भूल भुलैया

रस्ता कोई खोज रहा था

भूली मैं सुध बुध आसकिरण

बचपन अपना फिर पाया


मधुर रागिनी तू सपनों की

उषा गीत तेरी किलकारी

आँगन अब वसंत है छाया

गुँजित फाग राग से क्यारी

नन्हीं तुतलाती बातों में

रस मधुरिम घुल-घुल आया


धूल उड़ाती तू इठलाती

माटी के घरौंदे बनाती

फूल पत्तियां टहनी लेकर

अनुपम जीवन बेल सजाती

आनंद नव सृजन का मैंने

नन्हें हाथों में पाया



सरदी की मीठी धूप बनी तू

या फिर इन्द्रधनुष खिल आया

आज चली तू डगमग डगमग

झूला गगन संग बतियाया

और सहसा ही उठा एडियाँ

तारों से हाथ मिलाया