स्वरचित रचनाएं..... भाव सजाऊं तो छंद रूठ जाते हैं छंद मनाऊं तो भाव छूट जाते हैं यूँ अनगढ़ अनुभव कहते सुनते अल्हड झरने फूट जाते हैं -वन्दना
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Monday, April 25, 2011
गज़ल( हवाओं का हमसफ़र)
Saturday, April 23, 2011
खंडहर नहीं वो
पीले
सलवटों भरे कुरते में
अस्तित्व समेटे
खंडहर नहीं है वो
बस कुछ बरसों से
पलस्तर के अभाव में
मुरझा गया है
झांक कर देखो तो
एक भरी पूरी दुनिया
एक उपस्थिति है वो
अतीत को वर्तमान से मिलाता हुआ
कांपती आवाज़ में
वर्तमान के
अतीत हो जाने की कथा कहता हुआ
और हम
अतीत हो जाने की कल्पना से
डरे सहमे
नहीं सुनना चाहते
वह आवाज़
भविष्य को वर्तमान बनाने की होड में
बेतहाशा भागते हुए
वर्तमान ......
जिसे अंततः अतीत हो जाना है
और झेलनी है
खंडहर सी
मर्माहत वेदना
Wednesday, April 20, 2011
बच्चे और कल्पना
कल्पना को आधार बनाकर यथार्थ के नए धरातल गढे जा सकते हैं .कहीं न कहीं तो पहली बार चाँद पर उतरने का सपना देखा गया होगा भले ही यथार्थ में चाँद पर चरखा चलाती बुढिया न मिली हो ना ही कोई बूढा बाबा बच्चों के मामा के रूप मे मिला पर चंदा के घर जाने का सपना तो पूरा हुआ और आज वहाँ कॉलोनी बसाने की बात सोची जा रही है
सोचिये अगर मानव को पता होता कि चाँद हजारों किलोमीटर दूर है वहाँ न हवा है न पानी तो क्या इन तथ्यों के आधार पर कोई चंदा के घर जाने का सपना सजा सकता था
मेरा मानना है कि तथ्यात्मक जानकारी के साथ साथ यदि बालकों की कल्पना शक्ति का विकास किया जाए तो बालक का सर्वांगीण विकास स्वतः स्फूर्त होगा .आज पाठ्यक्रम और शिक्षा पद्धति मे तथ्यों की भरमार है और कल्पनाधारित संक्रियाएँ बहुत कम (नगण्य) .यहाँ तक कि हिंदी अंग्रेजी जैसे भाषाई पाठ्यक्रमों मे भी कल्पना आधारित प्रश्नों को आदर्शों की सीमा मे बाँध देते हैं कहीं सकारात्मक उत्तर अपेक्षित है तो नकारात्मक उत्तर को कतई स्वीकार नहीं किया जाता .
प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं फिर भी कतिपय विद्वान मानते हैं कि कंप्यूटर युग में बच्चों को परियों और जादू के किस्सों से क्या सरोकार उन्हें ऐसे किस्सों से दूर रखा जाना चाहिए .
बेशक कोरी कल्पना मे बहते जाना एक नादानी है किन्तु तैरना सिखाने के लिए बच्चे को धारा मे तो नहीं छोड दिया जाता . उसे संरक्षित परिस्थितियों में प्रशिक्षण दिया जाता है ठीक उसी तरह पाठ्यक्रमों में भी कल्पना को उचित स्थान दिया जाना आवश्यक है .कंप्यूटर स्वयं कल्पना प्रसूत यंत्र है और कल्पना के लिए अनंत आकाश भी .इस अनंत आकाश में उड़ान के लिए पंख पसारने का हौसला हो तो ब्रह्मांड अपनी मुट्ठी में करना क्या मुश्किल है ?
मूर्तिपूजा जैसी अवधारणा के समर्थक भी है और अनेको उसके विरोधी भी दोनों पक्षों के अपने अपने तर्क हैं .मूति को आधार बनाने वालो का कथन है कि यह एकाग्रता में सहायक है तो दूसरी ओर मूर्तिपूजा के विरोधी इस तर्क को आधार-हीन मानते है .यहाँ न्याय करना कि दोनों में से कौन सही है कौन गलत यह हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं है लेकिन मध्यम मार्ग को अपनाते हुए यह स्वीकार करने में तो बुराई नहीं कि लक्ष्य प्राप्ति का साधन जो भी हो परिणाम सुन्दर होना चाहिए . एकलव्य यदि गुरू की मूर्ति में गुरू कल्पना से एक अच्छा धनुर्धर बन सकता है तो क्या जरूरी है कि द्रोण मनुष्य रूप में ही शिक्षा दें.
Saturday, April 16, 2011
आधुनिकता और भारतीय नारी
इन दिनों फिल्मों में शराब पीकर बहकती गालियाँ देती नायिकाओं को दिखलाये जाने का चलन देख मन वितृष्णा से भर जाता है .साहित्य मे किसी भी प्रकार की नायिका इन फ़िल्मी नायिकाओं से मेल नहीं खाती .नारी शक्ति आन्दोलनों को चलाने वाले भी इस पर सवाल नहीं उठाते कहीं इस स्वरूप को उनकी मौन सहमति तो नहीं .
भारतीय नारी आदिकाल से ही विश्व मे सर्वोच्च स्थान पर रही है .प्रेम ममता वात्सल्य की वह प्रतिमूर्ति सदा ही कथाओं की उदात्त नायिका रही है .वैदिक काल मे गार्गी मैत्रेयी जैसी विभूतियाँ हमारे इतिहास का गौरव पृष्ठ हैं तो स्वतंत्रता का सीमांकन करने वाली विद्योत्तमा अपने ज्ञान के बल पर ही राज दरबार मे शास्त्रार्थ हेतु पंडितजनों को ललकार सकने का साहस रखती थी . सीता जैसी महानायिका ने क्या अपने स्वाभिमान पर आंच आने दी थी जहाँ एक ओर अपनी निडरता से उसने रावण के सामने समर्पण से इनकार किया था वहीँ दूसरी ओर अकेले ही लव कुश को सुशिक्षित कर ममता और दायित्व निर्वहन की योग्यता का प्रदर्शन किया था .अपनी जड़ अपनी जमीन को थामें रखने मे ही नारी की सार्थकता है सहजता है सम्पूर्णता संप्रभुता है
नारी सृष्टि की सृजनहार है ....
मिटा दे अपनी हस्ती को गर मर्तबा चाहे
कि दाना ख़ाक मे मिलकर गुलो गुलज़ार होता है
अपने आपको आँचल मे ढक लेना समाज से ज्यादा परिस्थितियों की देन थी यवनों मुगलों के आक्रमण ने नारी को देहरी के भीतर बाँधने का प्रयास भले ही किया हो किन्तु याद रहे कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मे अपने शिशु को गोद मे लेकर लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगना ने आतताईयों का सामना किया था .
आज आधुनिकता का तथाकथित प्रश्न बाजारवाद के निजी स्वार्थों की पूर्ति का साधन मात्र है .सिगरेट ,शराब पीकर बहकना डियो–डरेंट के पीछे भागना आधुनिकता की मांग तो नहीं कही जा सकती.
भला शारीरिक सौंदर्य विपणन आधुनिकता की पहचान कैसे हो सकती है उपभोक्तावादी इस संस्कृति मे किरण बेदी इंदिरा गांधी ,ऍम एस सुब्बालक्ष्मी,मदर टेरेसा ,इंदिरा नुई जैसे नाम भी हैं जिन्होंने अपनी कर्मठता निडरता और योग्यता का परिचय देकर विश्व के प्रमुख समाचार पत्र पत्रिकाओं मे अपना स्थान बनाया न कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं मे ईनाम जीतकर सौन्दर्य की भव्यता उसके कर्म क्षेत्र मे है ना कि मुखौटों मे .
आधुनिकता शब्द की आड़ मे नारी का केवल ऊर्जा दोहन हो रहा है .पतन की खाइयो मे उसे धकेला जा रहा है . भारतीय नारी सदा से ही अपनी स्वतंत्रता को परिस्थिति अनुसार ढालकर श्रद्धेय बनी रही है और सदा रहेगी तथाकथित आधुनिकता की मोहर की उसे कभी आवश्यकता न थी और न होगी . बुद्धि चातुर्य ज्ञान भारतीय नारी मे पहले से था आज भी है फिर भला ऐसे आधुनिकीकरण जैसे छलावे को वह अपनी बैसाखी क्यों बनाए? भारतीय नारी समय की वह नदी है जो अपनी पीड़ा भूल हरियाली बिखराती आजीवन बहती है जहाँ से गुजरती है रास्ता बना लेती है .
जो नारी अपने बच्चों से दूर हो स्वयं के मनोरंजन को प्राथमिकता देने लगी है वह भूल रही है कि आम के वृक्ष की पहचान उसके फलों से है गुलाब का पौधा अपने फूल के कारण ही आकर्षित करता है .
आधुनिकता का अर्थ ग्रहण सुशिक्षा के रूप मे किया जाना आवश्यक है नारी को बैसाखियों के सहारे की नहीं वरन आत्म बल विकसित करने की आवश्यकता है
Wednesday, April 13, 2011
पतंग लूटता बच्चा
निर्मल आँखें
पलक फलक एक करती हुई
सीने मे उठती हिलोर
ढीली पकड़ी किसी चरखी सा
निरंतर खुल रहा है मन
साँसों की उत्ताल तरंगे
पकड़ लेना चाहती हैं
सामने से गुजरती डोर
वही डोर जिससे बंधा वो आसमान
जहाँ तैरते अनगिन सपने
पीले नीले लाल गुलाबी
पतंगों के रूप मे
अचानक एक ठोकर
और सामने बिखर गए हैं सपने
नहीं सिर्फ टूटे हैं उसके हाथों
चाय के गिलास
बल्कि
हो गयी हैं किरचियां अरमानों की
वजूद उसका हो गया है
लुटेरों के बीच कटी पतंग सा
Tuesday, April 5, 2011
मात्र द्रष्टा द्रुपदसुता
वह हँसी क्यूँ
कहा अधिरथ पालित कर्ण ने
लिखी है भूमिका इसी ने अपने चीर-हरण की ..
कहा दुर्योधन के अभिमान ने
दी है इसी ने प्रस्तावना
कुरुक्षेत्र संग्राम की
वो द्रौपदी स्रष्टा है स्वयं अपने भाग्य की
किन्तु कहो तो
क्या थी वह लेखनी तब भी
कि जब आहूत हुई असूया यज्ञ में
और याज्ञसेनी कहाई
कि चाहा था कृष्ण को
और पंचरत्न समर्पिता कृष्णा हुई
कि जब छली गयी
निजत्व सौंपकर भी
वस्तु द्यूत-क्रीडा में हुई
सही आत्मप्रवंचना कुलवधू ने
स्वजन मुखापेक्षी होकर
नीतिविद् लीक पंथियों की
अनुगामिनी होकर
वह थी भाव भार-वाहिनी
उन पञ्च महाबलियों की
जो चल दिए थे छोड़कर
स्वर्गारोहण के समय
न रुके न देखा पीछे
एक बार भी मुड़कर
या वह थी यज्ञोत्पन्ना अग्निप्रकृतिता
सीमान्त स्वरूप अभिव्यंजना
अभिमान स्वाभिमान की
संभवतः वह थी पुतली प्रचंड अभिमान की
या थी प्रतिक्रिया आहत स्वाभिमान की
कैसी छलना कैसी मृग तृष्णा है यह
कि हाथ नहीं वह कूँची
जो रच दे अदृश्य के पटल पर
मनवांछित चित्र कोई
प्रत्येक है बंदी यहाँ
अहम की कारा का
पूर्वाग्रहों के नागों को दुग्ध पोषित करता हुआ
कर्म के ताने बाने से बुना
‘चीर मात्र ‘
मरणधर्मा संसार का
तो फिर
क्या मात्र द्रष्टा नहीं द्रुपदसुता भी !
Friday, April 1, 2011
कैसा यह मुक्तिगान !!
ओ ! री शकुंतला
कैसा यह मुक्तिगान
दुष्यंत को समर्पण
कण्व की अनुमति बिना
वह तो व्यास थे कथा रचयिता
कि अंततः दिला दिए अधिकार
कभी सोचा
कण्व कितने कमजोर हुए
इस मुक्तिबोध से
दुष्यंत ने तो बांधा
प्रण को प्रमाण में
किन्तु अंगूठी भी छल गयी तुम्हें
मात्र दुर्वासा का शाप न था
यह तो दुष्यंत की मुक्ति थी
प्रण से संकल्प से
मात्र एक बहाना बना छलना
छलनाओं में जीती हुई
रिश्तों से भागती
आज की शकुंतला
घूंघट से मुक्ति का आह्वान
स्कार्फ की तहों में खुद को छुपाती
तन की कोमलता बचाती
मन से अब भी कमजोर
संसद में आरक्षित होकर
कोख में इतनी अरक्षित
मुक्ति आखिर किसकी
नारी वर्ग की
या तुम्हारे अहम की